सामाजिक

होली- गोश्त के साथ रंगीन पानी ना हो तो कैसा कायस्थ

पूरे देश की तरह लखनऊ में भी होली के रंग अलग-अलग देखने को मिलते हैं। यहां आज भले ही किसी एक वर्ग को होली के रंगों से परहेज हो,लेकिन एक समय यहां के मुगल नवाबों के यहां होली पर कई दिनों तक जश्न मनाया जाता था। होली की पहचान रंगों के अलावा खाने-पीने से भी जुड़ी हुई है। होलाष्टक लगते ही पूरा शहर मस्ती में झूमने लगता है। सबसे अधिक भीड़ तो मयखानों और गोश्त की दुकानों में दिखाई पड़ती है। और जब खाने पीने की बात चलती है तो इसमें सबसे ऊपर नाम कायस्थों का आता है,जिनके यहां होली पर बने लजीज व्यंजन हर बिरादरी के यार-दोस्तों को अपने यहां खींच लाते हैं।की होली ऊपर से दिखती तो एक जैसी ही है, लेकिन उसके भीतरी रंग में जातीय विशेषताएं भी घुली रहती हैं। लखनवी नफासत-नजाकत से लेकर होली के हुड़दंग में भी अपनी अलग पहचान बनाए रहती थी तो उसका बहुत हद तक श्रेय यहां की कायस्थ बिरादरी को भी जाता है। लखनऊ में कायस्थों की बड़ी आबादी रहती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार लखनऊ में कायस्थों की आबाद डेढ़ लाख के करीब है।वैसे तो यह वर्ग नौकरीपेशे वाला माना जाता है,लेकिन तीज त्योहार मनाने में मामले में भी इसकी कहीं कोई बराबरी नहीं है।

गौरतलब है कि मुस्लिम बिरादरी आमतौर पर होली के रंग से परहेज करती है, जबकि लखनवी तहजीब की बुनियाद तो मुस्लिम समुदाय ने ही डाली थी तो होली पर इस तहजीब की रंगत अगर किसी ने बरकरार रखी है तो वह लखनऊ की कायस्थ बिरादरी ही है। तो लखनऊ के ब्राह्मणों का भी इसमें खासा योगदान रहा है,जो कायस्थों के यहां बने नॉनवेज का पूरा लुफ्त उठाते हैं।लखनऊ के पुराने कायस्थों को तो आधा मुसलमान ही माना जाता था क्योंकि गोश्त-शराब उनकी दिनचर्या में शामिल रहा है। होली हो और गोश्त न बने तो कैसा कायस्थ? और यह भी नहीं कि सिर्फ गोश्त ही बने, कलेजी भुनी हुई न हो तो शराब हलक के नीचे उतरे कैसे। इसलिए कलेजी तो जरूरत की चीज समझी जाती थी होली में। हरी मटर फागुन में बहुतायत से और सस्ती मिलती है। कीमा मटर बहुत पसंद किया जाता रहा है। इसी को जब सूखा यानी बगैर शोरबे के बनाते हैं तो उसे दुलमा कहा जाता है। यहां यह भी ध्यान रहे कि 1950 के दशक में न गैस के चूल्हे थे और न ही कुकर। कायस्थों के घर में ये सब मांसाहारी व्यंजन पकाने और बनाने में खासा वक्त और मेहनत लगती थी। इसका श्रेय निश्चित रूप से महिलाओं को ही दिया जाता है और दिया भी जाना चाहिए।

आज भी जब कायस्थों के यहां शादियां तय होती हैं तो पहली बात यही पूछी जाती है कि लड़की शाकाहारी है कि मांसाहारी। अगर शाकाहारी है तो क्या घर में मांस बनने से परहेज तो नहीं होगा? यानी कि घर में बने तो वह घिनाएगी तो नहीं। कायस्थों के यहां एडजस्टमेंट की काफी गुंजाइश रहती है। मेरे पिता मांसाहारी थे, जबकि मॉ प्योर शाकाहारी,लेकिन उनके हाथ के बने नॉनवेज की तारीफ कई बार हम सुन चुके हैं। उनका खाना पहले बनाकर अलग रख दिया जाता था, उसके बाद चौके में मांसाहार भी बनता था। अनेक कायस्थ परिवारों में यह परंपरा आज भी जारी है। कोई गोश्त-शराब का शौकीन है तो कोई परहेज गार है। लेकिन परिवार तो परिवार है, खान-पान के सबब से हरगिज नहीं टूटेगा।

लखनऊ के कायस्थों की होली में खानपान के साथ इत्र भी महकता रहता है। अबीर-गुलाल में खस मिलाने की परंपरा लखनऊ में बहुत पुरानी है। यहां तक कि गीले रंग में भी इत्र मिलाया जाता था ताकि रंग की फुहार पड़े तो बदन महकने लगे और खुद को अच्छा लगे। अमीनाबाद से चौक की तरफ जाने लगिए तो रकाबगंज पड़ता है। यहां दाहिने हाथ एक ढाल उतरती है और एक मोहल्ला मशकगंज कहलाता है। जहां बड़ी सख्या में कायस्थ रहते हैं,इसी तरह से निवाजगंज,बाबूगंज, नौबस्ता मौहल्ला कभी कायस्थों का गण हुआ करता था,होली पर यहां हर घर से नॉनवेज की खुशबू आती थी तो रंगाीन पानी के शौकीन ‘गिलास लड़ाते’ मिल जाते थे। गरीब से गरीब कायस्थ भले ही फटा-पुराना कपड़ा पहन कर रंग खेलते रहे हों, लेकिन खाते-पीते घर के कायस्थ हमेशा ही सफेद-घुले, बरकाबरक कपड़ों में ही रंग खेलना पसंद करते थे। रंग पड़े तो खिले भी। कालिख मुंह पर पोतना-पुतवाना, उन्हें नागवार ही गुजरता था।

गोश्त-शराब का जिक्र पहले हो चुका है। यहां सिर्फ यह बताना जरूरी है कि बहुत से वैश्य और ब्राह्मण घरों में इसे निषिद्ध माना जाता था। लेकिन इनकी युवा पीढ़ी की जुबान लांय-लांय करती थी। सो ऐसे युवा तुर्क होली में कायस्थों के घर जरूर पहुंचते थे। उन्हें पता होता था कि किन-किन घरों में मांसाहार जरूर बना होगा। कायस्थों को खुद खाने के अलावा खिलाने का भी शौक रहा है, इसलिए उनके घरों में हमेशा ही उनका स्वागत होता आया है। आओ भाई, लो पीयो और खाओ। दुलमा तो चख के देखो ही। एक बार मेरे गरीबखाने पर पड़ोस के एक वैश्य सज्जन आए। पीते तो थे, मगर मांस नहीं खाते थे। औरों को दुलमा खाते देख उन्होंने भी मटर की सब्जी समझ के दुलमा चख लिया। मजा आया तो और खाया। हम लोगों ने उन्हें बताया नहीं कि क्या है। दूसरे दिन बताया तो वे अब क्या करते? बोले अब खा ही लिया तो आगे भी खाया करूंगा, जब बने तो मुझे भी बुला लेना, लेकिन घरवालों को बताना नहीं। मेरे परिवार ने यह फर्ज हमेशा निभाया। खिलाया भी बताया भी नहीं। कायस्थों की अदा कुछ अलग ही नजर आती है। खाने-पीने से धर्म का कोई संबंध नहीं है। लेकिन कुछ लोग मानते हैं तो हम क्या करें। शाम के वक्त नए धुले कपड़ों में खस या हिना लगाकर गले मिलने का रिवाज कायस्थों में पहले भी था और अमीनाबाद,रकाबगंज, सआदतगंज वगैरह में आज भी है।

— संजय सक्सेना, लखनऊ

संजय सक्सेना

लखनऊ [email protected] 9454105568, 8299050585

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