कविता

गरमाती धरती

काम-पढ़ाई सब पूरा कर मैं इसी तलाश में
सीढ़ी पर चढ़ गुपचुप-गुपचुप जाऊँगी आकाश में
सोचने लगी दादा-दादी के किस्से गंभीर दिल में
वे बता रहे थे जंगल-पेड़-पौधे-ग्रह-नक्षत्रों के बारे में…।

जानी-अनजानी-सी ऐसी मनोहर एक धरती थी
हरे-भरे जंगल-बगीचे पेड़-फूलों से लदी भूमि थी
जहाँ कल-कल करके बहती साफ़-साफ़ नदियाँ थीं
पशु-पक्षी से मिलकर मानव ने ज़िंदगी बितायी थी…।

मानव ने जीवन देनेवाली धरती को ही उजाड़ दिया
जंगलों को काटकर मरुस्थल में बदल दिया
जंगली प्राणियों का घर छीनकर बड़े-बड़े कारखानों को बो दिया
शुद्ध हवा का स्तर घटाकर धरती का सीना छेद दिया…।

सूरज की किरणें तेज़ बन गयी, ओज़ोन परत पतली हो रही
पृथ्वी का तापमान बढ़ा दिया, पृथ्वी का संतुलन बिगड़ रहा
आसमान में प्रदूषण के काले बादल छाये, नित नयी बीमारियाँ बरस रहीं
नदी और तालाब सूख गये, ग्लोबल वोर्मिंग का खतरा मंडरा रहा…।

देखो-देखो पिघल रहा ग्लेसियर, ताज हिमालय पूरी दुनिया
कहीं सुनामी, कहीं भूकंप और कहीं बाढ़ पृथ्वी ने चेताया
अब न धूप लगे सुखदायी, सूरज ने गुस्सा दिखलाया
बढ़ रहा है धरती का पारा, जीवों के जीवन पर गहरा संकट छाया…।

लू ने अपना जाल बिछाया, बाहर कितना रास्ता तपता
दिन में कितनी बार नहाया, पल भर को भी कोई बैठ न पाता
टप-टप करके पसीना आया, बिना पंखे कुछ नहीं सुहाता
इतनी उमस की दूभर जीना, ऐसा गर्मी का मौसम आता…।

अभी भी वक्त है मानव जाति का कल्याण सोचकर जाग जाएँगे
मुश्किल है फिर भी खोया हुआ सम्मान प्रकृति को लौटा देंगे
धरती माँ को बचाने पेड़ लगाएँ, जल बचाएँ, प्रदूषण हटाएँगे
तो आओ हम सब मिलकर गरमाती धरती पर श्रमदान करेंगे…।

— डब्लिव.के. नॉसिका यसन्ति

नॉसिका यसन्ति

मैं श्री लंका के केलनिय विश्वविद्यालय की एक हिंदी लेक्चरर हूँ

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