नौ दो ग्यारह होना
गोरा बदन ,बॉय कट बाल, तिरछी नजर, फूल जैसा कोमल चेहरा और मुस्कुराहट चेहरे का प्रमुख आभूषण , उसके मुस्कुराने का अंदाज तो पथिक को एक बार पलट कर देखने को जरूर बाध्य करता भंवरी !
नाम की ही तरह वह भौंरी की तरह खुद गुनगुनाती और अपने आप में मस्त रहती , लेकिन प्यार से सब उसे लाडो कहकर ही पुकारते ।
इकलौती थी, जिससे लाडली भी कुछ कम न थी। जरूरत के हर साधन भी पलक झपकाते ही हाजिर हो जाते, हालांकि मां पवित्रा देवी उसे हर वक्त टोकती , लेकिन पापा जलंधर देव मां की बातों पर अक्सर मिट्टी डाल देते । भंवरी को हुक्म बाजी के लिए और प्रोत्साहन मिल जाता ।
देखते- देखते कब खिलौनों से खेलने वाले हाथ, पहले किताबें और फिर कब युवा हो गए पता भी न चला। समय की मांग देख जलंधर देव अच्छे लड़के की तलाश में भी लग गये ।
इसी दौरान उनकी मुलाकात पुरोहित जी से हुई। बातों ही बातों में उन्होंने अच्छे लड़के की तालाश की बात भी कही।
मुझे तो दफ्तर से छुट्टी ही नहीं मिलता कि इधर-उधर कुछ ध्यान दू। जलंधर ने एक पुरोहित जी से कहा।
“अरे वह चौधरी लाल जी का बेटा बा न, वह भी लंबा चौड़ा अच्छा खासा बा।लाडो भी तो लंबा चौड़ा बाड़ी, दोनों के अच्छा जोड़ी जची–“पुरोहित जी ने बताया।
” वह चौराहे वाला चौधरी जी की बात कर रहे हैं बाबा ?” पिता ने जानना चाहा।
” हां-हां, उहे, उ तो शायद अकेला ही लड़िका बा! “
” हां हां”– पुरोहित जी ने कहा
“केतना कमात होई बाबा!” जलंधर ने पूछा
” कितना कमात होई…, कौनो प्राइवेट कंपनी में बा 50-60 हजार तो कम से कम होइबे करी !
” इतने में उन्होंने झट से कहा– बाबा जी 50-60 हजार में का होई, आजकल ई महंगाई में! जलंधर देव ने चिंता जाहिर की।
” ह राउर बात में दम त बा, लेकिन आजकल अच्छा लड़िका मिलत कहां बा …”
” हां उ त बा ,फिर भी …कोई और होई त बताइब !
” हां ,एगो औरी लड़का झारसुगुड़ा में रहेला, एलपी स्कूल में मास्टरी कर ता वो लड़कवा, अच्छा बा , छोटे से दिखले बानी जा ,कौनो ऐब नयीखे। लेकिन नौकरीया अभी कांट्रेक्चुअल बा , कुछ दिन जाई त सरकारी हो जाइ, “पुरोहित जी ने बताया।
“तब त अभी वेतन बहुत कम होई, “जलंधर ने कहा।
आपकी बात तो सही बा, लेकिन वेतन बादे बढ़ जाइ।
” हां, जानबूझकर अइसन लड़के से आखिर कैसे विवाह देब,…!
हां, देखत रह तब (बुदबुदाते हुए स्वर में) पुरोहित जी निकल गये।
देखते -देखते महीना फिर साल बीत गया । न जाने कितने ही रिश्ते आए गए, किसी न किसी बात को लेकर जलंधर जी विवाह नाकारते रहे , लेकिन वक्त के साथ अब कभी शीला देवी की तबीयत, तो कभी लाडो के विवाह की चिंता पिता को अक्सर सताती रहती ।
तभी पड़ोसी चाचा ने दूर शहर से आए किसी लड़के की सूचना दी। लड़का बात व्यवहार में बहुत अच्छा है। संबलपुर में अच्छा खासा फ्लैट , गाड़ी भी है , लेकिन थोड़ा मोटा और कद थोड़ा कम है ।
(पिता ने आश्चर्य भरे शब्दों में कहा)– कितना कम है चाचा जी?
वह अपने मोबाइल से ढूंढते हुए एक तस्वीर आगे किए ,यही वह लड़का है।
“इसका कद तो बहुत ही छोटा है, लाडो तो बहुत लंबी है।’ पिता ने चिंता जाहिर की ।
लाडो फौरन तस्वीर देखते ही ” पापा पैसे तो थोड़े कम भी हो तो आ जाएगा लेकिन ऐसे इंसान से शादी करके मैं कैसे….. इतना कहते ही वह वहां से ना दो ग्यारह हो गई । जलंधर को फौरन पुरोहित जी की बात स्मरण हो गई। “सबको सब कुछ नहीं मिलता “यह बात स्मरण होते ही पारिवारिक स्थिति को दर्पण बनाकर उन्होंने उसे बहुत समझाने की कोशिश किया।
उधर लाडो की चिंता मां को भी अलग ही सता रही थी। शीला देवी की गंभीर अवस्था देख पिता के कहने पर मित्र का बेटा जो सरकारी विद्यालय की देख-रेख करता था ,ना चाहते हुए भी लाडो ने उससे विवाह के लिए हामी भर दी ।
विवाह ,विदाई ,और पगफेरा तीनों ही रशमे समाप्त हो गई। जिंदगी की गाड़ी किसी तरह चल ही रही थी । मेहमानों का आवागमन खत्म हुआ ही था कि हर चीजों में सादगी एवं आभाव देख लाडो को बड़ा अजीब महसूस होता। महीने के अंत तक घर पर आटा- चावल मिल भी जाता तो लेकिन साग -सब्जी का तो अकाल सा हो जाता ।
दिन पर दिन मां की तबीयत और बिगड़ती गई, और एक संध्या वह हमेशा के लिए दुनिया छोड़कर चली गई। पिता पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। तेरहवीं समारोह में लाडो भी वहां शामिल हुई । लौटने का दिन नजदीक देख लाडो कुछ उदास सी रहने लगी। एक दिन पिता ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए –क्या बात है बेटा? कुछ उदास लग रही हो।”
“नहीं पापा , बस कुछ नहीं।”
दुख की इस घड़ी में लाडो कुछ कहना तो नहीं चाहती थी , पर वह अपने आंसुओं को रोक न पाई।
“लाडो क्या हुआ ! तुझे जमाई राजा ने कुछ कहा?”
नहीं पापा , वह क्या बोलेगे! पापा, मैं वहां नहीं जाऊंगी ।
“क्यों बेटा, क्या हुआ ! पापा वहां खाने तक को नहीं मिलता, फल -मूल तो बहुत दूर की बात है साग- सब्जी तक भी नहीं मिलता।यह सुनते ही पिता के दिल पर सांप लोट गया। परिवार के हालात को समझाते हुए ” बेटा मैं तुम्हारी मुश्किलें समझ सकता हूं , लेकिन मैदान से भाग जाना किसी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन नहीं होता। जब बीमारी लग ही चुकी है तो उसका समाधान निकालो न कि…।
लाडो कुछ भी कहो बेटा , लड़कियों का असली घर तो ससुराल ही है, ” तुम पढ़ी-लिखी हो, क्यों नहीं तुम किसी नौकरी के लिए प्रयास करती ,एक बार अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ,तो जिन्दगी चलाना आसान हो जाएगा,और तुमने तो कंप्यूटर भी सीख रखा है। यही तो समय है अपने जीवन की परीक्षा की ! पैसे तो आ ही जाएंगे लेकिन एक बार यदि जिंदगी अपनी पटरी से उतर गई तो फिर उसे नहीं संभाल पाओगी ,और विवाह के बाद तो बहु ही ससुराल का शोभा होती है….यह सुनते ही लाडो सोच में पड़ गई और पुनः ससुराल जाने का साहस की । पिता के कहे अनुसार उसने नौकरी के कई फॉर्म भी भरे , जिससे देखते-देखते साल बिताते ही उसे सरकारी विद्यालय में अकाउंटेंट के पद पर आमंत्रण भी मिल गया। लाडो ने ज्यों ही यह खबर पिता को बताइ ।
खुशी से झूमते स्वर में,बेटा जिंदगी को तुम्हें एक बार पुनः संवारने को मौका दिया है ।
लाडो ने हंस कर कहा — हां पापा, प्रॉब्लम्स से भागना नहीं बल्कि उसका समाधान निकालना ही असल जिंदगी है … लाडो की यह बात सुन पिता का सीना -चौड़ा हो गया।
“सिर पर हाथ फेरते हुए ,हां बेटा …
….पापा …..
लाडो की नौकरी ने दोनों परिवारों में खुशियों की लहरों से सजा दिया …..।
— डोली शाह