फौजी
फौजी ठहरा कंत मेरा
मैं उनकी थी घसियारी
कभी सास मेरे हाथ जला दे
कभी दमा दम चटकाती ॥
लाख छुपाऊँ सखियों से मैं
यह घटना थी प्राकृतिक
खोजिया – खोजिया पूछ मुझे
वे कर देती बहुत ही दिक ॥
कभी प्राणप्रिय घर आ जाते
मैं उनकी थी मरियल ब्यौली
सास रात दिन ताना देती
क्यों बन बैठी नयी नवेली ॥
छपरी भर रोटियाँ पकाऊ
भरे जाम सब्जी सूखी
छपरी जाम को में रीता पाऊँ
सो जाती हूँ फिर भूखी ॥
अब जब मैं बन गई सास
वर्ष व्यतीत हुए पूरे पचास
सास की जगह मेरी बहू ने ले ली
यह कैसा विरोधाभास ॥
ना हँस सकती ना रो सकती
रहती हूँ मैं बहुत उदास
बहू सास से बढ़कर निकली
अच्छी थी मेरी ही सास ॥
— देवेन्द्रपाल सिह बर्गली