कविता

कालचक्र

मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं
सूर्य की सुनहरी किरणों संग चलता हूं
बचकानेपन वाले मन से क्षण-क्षण लड़ता हूं ।

स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाता हूं
स्वयं ही निराशा के सागर से निकल
आशा के मोती चुनता हूं
मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं ।

अकेला ही चल पड़ता हूं
उन वीरान रास्तों पर
जिन पर चलना और फिर न लौटना
पर मैं लौट आता हूं
मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं ।

पल-पल अनर्थ से डरता हूं
कालचक्र से लड़ता हूं
भूत, भविष्य और वर्तमान से कहता हूं
मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं ।

— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

नाम - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा एम.ए., आई.डी.जी. बाॅम्बे सहित अन्य 5 प्रमाणपत्रीय कोर्स पत्रकारिता- आर्यावर्त केसरी, एकलव्य मानव संदेश सदस्य- मीडिया फोरम आॅफ इंडिया सहित 4 अन्य सामाजिक संगठनों में सदस्य अभिनय- कई क्षेत्रीय फिल्मों व अलबमों में प्रकाशन- दो लघु काव्य पुस्तिकायें व देशभर में हजारों रचनायें प्रकाशित मुख्य आजीविका- कृषि, मजदूरी, कम्यूनिकेशन शाॅप पता- गाँव रिहावली, फतेहाबाद, आगरा-283111

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