संघ साधना के 100 वर्ष
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर रहा है। 1925 विजयादशमी के दिन मात्र कुछ 10 – 15 युवाओं के साथ मोहिते के बाड़े में खेल कूद करते डा. हेडगेवार ने कैसे संघ को विश्व का सबसे बड़ा संगठन बना दिया ये समाज शास्त्रियों के गहरे शोध का विषय है। उपहास, उपेक्षा, घोर विरोध को पार करते साधन, सुविधा विहीन संघ कैसे सफलतम संगठन बन गया। जिस संगठन को नेहरू जी से लेकर कुछ वर्ष पहले तक लगातार सत्ता के विरोध और कुचक्रों को सहना पड़ा, जिस संगठन पर तीन तीन बार प्रतिबंध लगाया गया, महात्मा गांधी हत्याकांड जैसा झूठा आरोप लगा कर जिसको बदनाम करने की साजिश रची गई,आपात काल में जिसके सैंकड़ों कार्यकर्ताओ पर जुल्म के कहर ढाए गए वो RSS आज देश और दुनिया में सर्वत्र स्नेह, सम्मान और प्रशंसा पा रहा है – कैसे हुआ ये चमत्कार। संघ कार्यकर्ता गली कूचों से लेकर भारत के प्रधानमंत्री तक दसों दिशाओं में छा गए – कैसे हुआ ये सब ?
सवाल कठिन है। उत्तर उतना ही सरल। किंतु यदि वास्तव में आपको उत्तर जानना है, संघ को ईमानदारी से समझना है तो आपको संघ के नजदीक जाना होगा। ए.सी. कमरो में बैठ केवल पुस्तकों से आप संघ को नही समझ सकते। सच्ची बात तो ये है कि बिना शाखा जाये संघ को समझना कठिन है।
संघ की इस कठोर तपस्या के पीछे सहस्त्रों जीवनव्रती कार्यकर्ताओं का योगदान है। उनकी प्रेरणा है संघ संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार का देदिप्यमान जीवन। ऐसा जीवन जिसने राष्ट्र यज्ञ में सब कुछ होम कर दिया, बिना किसी प्रचार, पद या प्रतिष्ठा की चाहत के। अभावों से लड़ते बचपन में ही जिसने अपने मां-बाप को एक ही चिता पर अग्नि दे दी –
महादेव शास्त्री के 2 बेटे थे- बलिराम और रामचन्द्र। मां रेवती बाई और पिता बलिराम के तीसरी संतान थी केशव राव। शक संवत 1811 को वर्ष प्रतिपदा के शुभ दिन तद्नुसार 1 अप्रैल 1889 को भोंसलों की राजधानी नागपुर में विजय की गुडी पहारते हुए जन्म हुआ था केशव का। शालिवाहन की विजय का स्मरण कराने वाले इस दिन का डा हेडगेवार की मूल जीवनी के लेखक नाना पालकर ( pl check? ) ने इस प्रकार वर्णन किया –
” – शिशिर ऋतु समाप्त हो चुकी थी। निष्पाद पादपों को कोमल किसलयों से आप्लावित तथा वृक्ष लताओं का सुगंधित एवम् मोहक पुष्पों से श्रृंगार करता हुआ ऋतुराज बसंत प्रवेश कर रहा था। रात्रि का अधंकार दूर कर दसों दिशाओं में आशा की अरुणिमा बिखेरती हुई उषा अंगड़ाई लेकर उठ बैठी थी। प्रकृति की इस सुंदर संक्रमण बेला में इस बालक का जन्म मानो उसकी मनीषा और भावी का संकेत ही था।उनके जन्म के साथ ही भारतीय जीवन में उदासीनता का शीत काल समाप्त होकर मंगल आकांक्षाओं का अंकुर फूटने लगा।”
— ” भाषण तो आप बहुत सुनते होंगे, ग्रंथ आपने बहुत पढ़े होंगे, लेकिन जो पढ़ा, लिखा और समझा है उसको आचरण में उतारने के लिए आदत ही काम करती है और कोई दूसरी बात काम नहीं करती। यह आदत लगाने का काम शाखा में होता है।” —
भविष्य का भारत की तस्वीर खींचते हुए 17, 18, 19 सितम्बर 2018 को दिल्ली के विज्ञान भवन में पूज्य सर संघचालक डा.मोहन भागवत जी ने अपने उद्बोधन में ये बात कही थी। याने संघ के सारे काम का केंद्र बिंदु है शाखा।
संघ का ये जो विराट रूप है, इसके उद्देश्य और सफलता के मुख्य कारण कौन से हैं-
मेरे विचार से संघ कार्य की 5 बड़ी विशिष्ठतायें हैं जो शायद किसी और के पास नही –
1) संघ की विशिष्ठ कार्य पद्धति जिसको शाखा पद्धति भी कहते हैं।
2) प्रचारक परंपरा
3) संघ का वैचारिक अधिष्ठान
4) प्रसिद्धि प्रांगमुखता
5) कर्ममय जीवन
इनके मूल में जो संघ निर्माता का अजातशत्रु, प्रसिद्धि प्रांगमुख तपस्वी जीवन है एकबार फिर से उस ओर चलते हैं।
बालक केशव बचपन से ही अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ अत्यंत उग्र थे। वन्दे मातरम आंदोलन में उन्हें क्षमा न मांगने के कारण विद्यालय से निकाला गया।अनेक कठिनाइयों से जूझते हुए यवतमाल के राष्ट्रीय विद्यालय से आरंभिक पढ़ाई पूरी कर वो किसी प्रकार कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कॉलेज पहुंचे।पढ़ाई तो बहाना था। उद्देश्य था देश भर के क्रांतिकारियों की अनुशीलन समिति से जुड़ना। जहां उन्होंने 4 वर्ष में मेडिकल की परीक्षा LMS पास की वहीं क्रांतिकारियों की बेहद कठोर परीक्षा पास करते हुए उनकी कोर कमेटी में प्रवेश लिया और कोकेन कोड नाम से अनेक गतिविधियों में सक्रिय रहे। राजस्थान से आंध्र तक क्रांतिकारियों को बसाने, उनकी रहने खाने की व्यवस्था करने उनको शस्त्र पहुंचाने आदि सारे काम संगठक के रूप में वो करते थे।
नागपुर वापस आकर एक ओर अच्छी नौकरी, पैसा, डॉक्टर का सम्मान आदि सब था। किंतु उन्होंने घोर अभावों को ही स्वीकार करते हुए ये सब छोड़ केवल देश के लिए जीवन जीने का संकल्प ले लिया और मन में ठान लिया असंभव लगने वाला हिंदू समाज का संगठन।
उसका रास्ता क्या हो, कैसे करें, कोई साधन नही, कोई सुविधा नहीं। अंग्रेजों के खिलाफ दशहरा उग्र भाषण के कारण एक साल की जेल हो गयी। कोर्ट में डॉक्टर साहब के बयान पर जज ने कहा – His statement is more seditious than his speech. जमानत तक नहीं ली।
जेल से निकल फूल मालाओं से लदी उनकी गर्दन इसी चिंता में झुकी थी। मन की उधेड़ बुन में से निकला शाखा का स्वरूप और फिर – श्री नाना पालकर ( check name? ) लिखते हैं –
” – मोहिते बाड़े के ध्वन्सावशेष के बीच राष्ट्र पुनर्निर्माण के प्रयत्न प्रारंभ हो गए।विध्वंस में भी सृजन का सामर्थ्य रखने वाले राष्ट्र का चैतन्य जाग उठा। अब रोज सायंकाल यज्ञ की जाजवल्यमान अग्निशिखाओं का स्मरण करा देने वाला परम पवित्र भगवा ध्वज फहराता हुआ दिखता तथा – “नमो धर्म भूमि जिए च्यत्व कामी,
पडो देह माझा सदा ते नमी मी ” –
यह प्रार्थना का गंभीर स्वर कानों में गूंजने लगा ” –
मराठी की ये मूल प्रार्थना आगे संस्कृत में नमस्ते सदा वत्सले — हो गयी जो प्रतिदिन होती है।
–” मनोवैज्ञानिक हमें बताते हैं कि किसी आदर्श के अनुसार व्यक्ति के चरित्र के निर्माण के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है-
प्रथम- जिस आदर्श का संस्कार करना है उसका सतत ध्यान।
दूसरे- उसी आदर्श के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का सतत साहचर्य।
और
तीसरी- शरीर को ऐसी गतिविधियों में लगाए रखना जो उस आदर्श के अनुकूल हों।”
यह उद्धरण है” विचार नवनीत” से जिसमें पूज्य श्री गुरुजी के विचारों को संकलित किया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पुस्तक संघ कार्यकर्ताओं के लिए भगवदगीता के समान मार्गदर्शक है।
चरित्र निर्माण के लिए ऊपर कही तीनों बातों की प्राप्ति हेतु जिस पद्धति की रचना संघ निर्माता ने की वह है दैनिक शाखा पद्धति। सामान्य दिखने वाली शाखा व्यक्ति निर्माण की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बन गई।
शाखा में मुख्य शिक्षक, गण शिक्षक, गटनायक, कार्यवाह, मण्डल कार्यवाह, संघ चालक आदि रचना बनी। एक घण्टे की शाखा में होने वाले शरीरिक, बौद्धिक कार्यक्रम हम देखते ही हैं।
हमने ये भी पढ़ा है कि मात्र शुष्क आदर्शों के आधार पर कोई बड़ा संगठन नहीं खड़ा किया जा सकता जब तक उसके व्यवहार में आत्मिक स्नेह, कार्यक्रमों में स्वाभाविक आनंदमय आकर्षण एवं कार्यकर्ताओं में परस्पर मैत्री भाव न हो। इसीलिए संघ के कार्यक्रमों में अनेक प्रकार के आनन्द मस्ती के चंदन, वन विहार आदि कार्यक्रम प्रारंभ से ही चल रहे हैं। यहाँ तक कि संघ के विभिन्न शिक्षा वर्गों का वातावरण भी अत्यन्त आनंदमय होता है।
अत्यधिक गर्मी के दिनों में कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए देश भर में लगने वाले इन वर्गों प्राथमिक, ITC, OTC में दिनचर्या प्रात: 4 बजे से रात्रि 10:30 तक काफी कठोर होती है। लेकिन कार्यकर्ता इसको बड़े आंनद और मस्ती के वातावरण में पूरा करते हैं। सम्पत के पहले संघ स्थान पर कुप्पा भैया जय बजरंगी के नारे लगाते,कई कार्यकर्ताओं द्वारा मिलकर नौ मत का एक मत बोलते हुए दंड पर किसी को उठाना, फिर पटकना ये दृश्य देखकर किसी को भी लगेगा यहां तो बड़ी मौज है। फिर ढाई घंटे के लगातार शारीरिक के बाद जलपान हेतु चने या दलिया की पंक्ति, चुपके से दुबारा पंक्ति में बैठने की नाकाम कोशिश और ऊपर से माननीय संकठा जी का डर और सूचनाओं का ढेर – लगता है इसी का सामना करते करते कमलेश जी कविता सुना रहे थे –
“चना कम सूचना ज्यादा,
घड़ी घड़ी तरसावे।
मैया OTC बहुत सतावै –“
जिसको सुन तृतीय वर्ष वर्ग, नागपुर में देश भर के स्वयं सेवक लोट पोट हो रहे थे।
कठिन से कठिन चुनौती को भी आनन्द के साथ पूरी करने की जिद का संस्कार इसके पीछे का भाव हैं। ऐसा नहीं है कि ये मौज मस्ती केवल नीचे के सामान्य स्वयंसेवकों में ही होती है और सभी बड़े अधिकारी हमेशा गम्भीर रहते हैं। संघ के प्रारम्भ से प्रचारक रहे अखिल भारतीय अधिकारी माननीय मोरोपंत पिंगले जी संघ में हास्य विनोद के लिए उसी तरह जाने जाते थे जैसे राजनीति में अटल जी। मैंने कहीं सुना था कि संघ पर लगे पहले प्रतिबन्ध के समय वो मस्ती में गीत गाते थे-
–” पंपों से सायकिल में भरते हैं हवा”
पंपों से सायकिल में –“
जब किसी ने पूछा कि अब इस मुसीबत में क्या करेंगे तो ये उनका उत्तर था। हम समझ सकते हैं कि हंसते हंसते मुसीबत को झेलने का प्रशिक्षण कैसे प्राप्त होता है।
27 सितम्बर 1925 विजयादशमी के दिन संघ आरम्भ करने के पूर्व भी संघ संस्थापक डा हेडगेवार ने हिंदू समाज को संगठित करने के अनेक प्रयास किये थे। क्रांतिकारियों और कांग्रेस में वो सक्रिय रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल चलाया जिसमें मासिक या पाक्षिक मिलते थे। किन्तु समाज जीवन के विभिन्न अनुभवों से निकली दैनिक शाखा पद्धति अत्यन्त प्रभावी अभिनव कार्य पद्धति सिद्ध हुई।
संघ संस्थापक ने पहले से कोई ब्लू प्रिंट तैयार नहीं किया था। संगठन का नाम तक तय नहीं था। सब धीरे धीरे सबकी चर्चा में से विकसित हुआ। शाखा शुरू होने के कई माह बाद 17 अप्रैल 1926 को संघ का नाम तय हुआ।परस्पर चर्चा में 3 नाम आये।
१) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
२) जरी पट्टिका मंडल
३) भारतोद्धारक मंडल
अंत में सबसे विचार विमर्श के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निश्चित हुआ।गुरु दक्षिणा तथा प्रतिज्ञा 1928 में आरम्भ हुई। चुने हुए 99 स्वयंसेवकों ने प्रतिज्ञा की। पहली गुरु पूजन की राशि थी मात्र 84 रुपये कुछ आने।
कोरोना काल और कुटुंब शाखा-
दैनिक शाखा प्रतिबन्ध काल को छोड़ कर कभी बन्द नहीं हुई। कोरोना काल के डरावने दिनों में जब लॉक डाउन चल रहा था तो शाखा ने नया रूप ले लिया। किसी भी कठिन स्थिति में कैसे रास्ता निकालें यह कोरोना लॉक डाउन समय से देख सकते हैं।उदाहरण देखिये –
— भाई साहब, 5:30 बजे कुटुंब शाखा लगेगी। परिवार सहित प्रार्थना करनी है।यह सूचना मुझे फोन पर मिली। और शायद यह पहला अवसर था जब मैंने और मेरी पत्नी ने एक साथ घर में प्रार्थना की । ऊपर से देखने में ये बहुत छोटी बात लगती है। लेकिन ये बड़ी, बहुत बड़ी बन जाती है जब पता लगता है कि इसी तरह 50 लाख से भी ज्यादा परिवारों ने लगभग डेढ़ करोड़ भाई बहनों, बच्चों ने ठीक उसी समय सारे देश भर में प्रार्थना की। याने हमारे जैसे लोग इतने बड़े कुटुंब का हिस्सा बन गए। कई मित्रों ने उस दिन अपने संस्मरण साझा किये। नया उत्साह मिला।
संघ की सफलता के पीछे है सफल कार्य पद्धति। ऐसी पद्धति जो व्यक्ति निरपेक्ष भी है और परिस्थिति निरपेक्ष भी। हां देश, काल की आवश्यकताओं को देखते हुए कुछ बाहरी स्वरूप में परिवर्तन भले हो जाए लेकिन न मूल स्वरूप बदलता है न लक्ष्य भटकता है। शुरू के विपत्ति भरे अभाव व उपहास के दिन रहे हों या आपातकाल के विरोध अथवा कोरोना के कारण lockdown में घर से बाहर न जाने की कठिनाई। हर परिस्थिति में संघ का कार्य अबाध गति से चलता रहा। Emergency में जहां प्रचारक धोती कुर्ता छोड़ पैंट,शर्ट में आधुनिक लुक वाले जेंटल मैन बन गए वहीं शाखाओं ने बॉलीबॉल, फुटबाल, पाठक क्लब आदि का रूप ले लिया। कोरोना में घर से नहीं निकल सकते तो क्या हुआ- घर में ही कुटुम्ब शाखा शुरू।
संघ के तृतीय पूज्य सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस का एक वाक्य संघ में बहुत चर्चित है या कहूं कि मार्गदर्शक है। उन्होंने कहा था – ” संघ याने शाखा, शाखा याने कार्यक्रम।
स्पष्ट है कि दैनिक शाखा संघ कार्य का मुख्य आधार है जहाँ विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से सबसे कठिन काम अर्थात व्यक्ति निर्माण स्वाभाविक रूप से होता है। शाखा में गण पद्धति,गट पद्धति हम जानते हैं। कार्यकर्ताओं के निर्माण के लिये शीत शिविर, प्राथमिक शिक्षा वर्ग, संघ शिक्षा वर्ग आदि हर वर्ष लगते हैं। इन वर्गों में शरीरिक, बौद्धिक प्रशिक्षण के साथ साथ सामुहिक संस्कार का लाभ मिलता है। उत्कृष्ट प्रबन्धन के गुण सीखते हैं।
एक उदाहरण लेता हूं-
कुछ वर्ष पहले रायबरेली मे सम्पन्न संघ शिक्षा वर्ग की लखनऊ में काफी चर्चा हुई थी। 20 दिन के संघ शिक्षा वर्ग मे प्रतिदिन 3000 रोटियां घरों से आती थी।
मेरी समझ से इस समान्य दिखने वाले काम के कई पक्ष हैं। जैसे-
1) प्रबंधन ( planning n perfect execution )
2) सामाजिक समरसता ( social engg)
3) कार्यकर्ता निर्माण
4) सामाजिक सहभागिता ( larger participation of the Society ).
संघ मे ये सब बहुत स्वाभाविक रूप से होता है . संघ की सफलता का यही राज है . बिना Management पर लेक्चर दिये 100% सफल प्रबंधन। बिना ऊँच नीच , अगडा पिछडा. आदि आदि के नारे लगाये सामाजिक समरसता होती है. स्वयं सेवकों के चरित्र व व्यवहार के कारंण समाज की भागीदारी कैसे बढती जाती है, काम के अनुसार कार्यकर्ता कार्यकर्ता के अनुसार काम इस मोटी बात पर चलते हुये कैसे निश्वार्थी कार्यकर्ताओं का निर्माण होता है पता भी नही चलता।
हरियाणा के संघ वर्ग का भी इसी तरह का समाचार पांचजन्य मे छपा था . इस हेतु कार्यकर्ताओं ने कई गावों मे संपर्क किया . रोटियां एकत्र करने हेतु
गट सह व्यवस्था की गयी . बिलकुल ठीक निश्चित समय पर एक केन्द्र से दूसरे पर व अंत मे सब एकत्र कर वर्ग मे समय से पूर्व ले जाने की पक्की योजना बनी .
इस योजना के बडे मजेदार अनुभव थे . अनेक नये गावों से ,अनेक परिवारों से संघ का सम्पर्क हुआ . माँ बहनो ने स्नेहवस रोटियों के साथ मिठाई , अचार ,फल आदि भेजे .कई बार इतना अधिक खाना आ जाता था कि अनाथालय आदि मे संपर्क कर वहाँ भेजा गया .बहुत से कार्यकर्ता इस काम मे सक्रिय हो गये . वर्ग में भाग ले रहे स्वयं सेवको को आनन्द आ गया . एक साथ पंगत मे बैठ कर खाने का आनन्द , बिना ये सोचे कि किस घर ,जाति , वर्ग से खाना आया है।
फिर समापन कार्यक्रम हुआ .माँ बहने बड़ी संख्या मे आयी . ज़िनके लिये खाना भेजती थी उनको देखने की भी उत्सुकता थी . सामाजिक सह भागिता , समरसता व प्रबंधन का अनूठा उदाहरण था . कार्यकर्ता ट्रेनिंग तो हो ही रही थी।
मौन तपस्वी-
लेख का समापन मैं पूज्य संघ संस्थापक के पुनर्स्मरण से करूंगा। 20 जून 1940 का दिन था। श्री सुभाष चन्द्र बोस संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार से मिलने आए।किन्तु तब ये मौन तपस्वी महाप्रयाण की तैयारी में थे। वाणी मौन हो चुकी थी। प्रणाम कर चले गए।
उसके कुछ पहले एक बार डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी डाक्टर साहब से मिलने आए। संघ को समझना चाहते थे। उस समय भी संघ संस्थापक गम्भीर रुग्ण शैय्या पर थे। श्री गुरुजी जिनके कन्धों पर संघ कार्य का भार डाक्टर साहब ने दिया था उन्होंने अस्वस्थता बता डाक्टर मुखर्जी से लम्बी चर्चा की। तरह तरह से संघ को समझाया। लेकिन डॉ मुखर्जी संतुष्ट नहीं हुए। अन्त में डॉ मुखर्जी संघ संस्थापक से मिलने उनके कमरे में गए और कुछ मिनट के बाद ही संतुष्ट होकर बाहर आ गए।बाहर आकर कहा कि मुझे संघ समझ आ गया। श्री गुरुजी ने इस घटना का बड़ा ही मर्म स्पर्शी वर्णन किया था।जो संघ लम्बी चर्चा में मैं नहीं समझा सका वो मौन तपस्वी के कुछ वाक्यों से डॉ मुखर्जी के अतंर्तम में उतर गया। डॉ हेडगेवार का देदीप्यमान जीवन मानो स्वयं बोल रहा था।
श्री गुरु जी के जीवन में डॉक्टर साहब की तपस्या के कारण कैसे परिवर्तन हुआ यह उन्होंने 6 दिसंबर 1942 को पुणे में प्रांतीय बैठक में स्वयं बताया – “डा. साहब कहते थे- बंधुओं संघ का काम करो, शाखा जाओ, रोज शाखा जाओ। मुझे शुरू में ये कोरी राम रटंत लगती थी। मैं मनमौजी था.अपनी बुद्धि पर बड़ा अभिमान था. मेरे चारों और विद्वत्ता का बड़ा आवरण था. उस पत्थर में से भी वह रिसा। विद्वता के पत्थर को तोड़कर रिसा। सहसा किसी से मात न खाने की मेरी ख्याति थी, 20 – 25 हजार पुस्तकें पढ़ रखी थी। मेरी विद्वता एवं विस्तृत वाचन। मैं विद्वान रहा होऊंगा। डॉक्टर जी के भाषण में ह्रदय की तड़प थी। और वह मेरे अंतःकरण में कैसे रिसी। तत्व के संबंध में विचार न करते हुए बीच-बीच में जो मिलना हुआ, उनका जो सहवास मिला उसी से यह परिवर्तन हो गया तथा जीवन को निश्चित दिशा मिल गई।” डॉक्टर साहब अजातशत्रु थे।आजीवन, अखण्ड कर्म योगी। प्रसिद्धि परांगमुख, कर्ममय जीवन।अद्भुद संगठन कर्ता। छोटे जीवन काल में उन्होंने जितना बड़ा काम किया वह दुनिया में बेमिसाल है। आइए उनके जन्म दिन वर्ष प्रतिपदा पर स्व. दत्तोपंत ठेंगडी जी के शब्दों में डॉक्टर साहब का पुण्य स्मरण करें – “कर्ममय संपूर्ण जीवन,
यज्ञ पावन बन गया था,
मृत्यु का विकराल क्षण भी,
भाग्य भावी बन गया था।
आज भी वाणी तरंगित,
प्रार्थना आराधना में,
है पुजारी अमर केशव,
आज भी नित्य अर्चना में। ” डॉ हेडगेवार ने एक लौ जलाई। उस लौ से अगणित दीप जल उठे – “संघ किरण घर घर देने को अगणित नंदा दीप जलें ,
मौन तपस्वी साधक बन कर, हिमगिरि सा चुपचाप गलें।” संघ साधना के 100 वर्ष पूरे हो रहे है। यह साधना जारी है। जारी रहेगी। क्योंकि संघ में यही सिखाया जाता
है — “साधना के देश मे मत नाम ले विश्राम का। ” शत शत नमन। 🙏🙏
— गोविंद राम अग्रवाल