बाल कहानी : मटके का पानी
रूपाली और दिनेश को अपने घर की ओर आते देख कर भारती समझ गयी कि वे दोनों प्रदीप के घर जाने के लिए उसे बुलाने आ रहे हैं। उसे पता था कि आज प्रदीप का बर्थडे है। रूपाली-दिनेश कई बार भारती को प्रदीप के घर ले जाने की कोशिश कर चुके थे ; और हर बार वे नाकाम रहे, पर आज सफल होने की चाह में वे कमर कसे हुए आ रहे थे। सभी बच्चे प्रियदर्शिनी पब्लिक स्कूल के विद्यार्थी थे। कक्षा नवमी में पढते थे। अच्छे विद्यार्थियों के रूप में इनकी गिनती होती थी। इनमें अच्छी दोस्ती भी थी। एक-दूसरे को मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।
अपने घर के नजदीक स्कूल फ्रेंड्स के आते ही भारती तुरंत घर के अंदर चली गयी। रूपाली और दिनेश भी समझ गये कि भारती अपने संकोची स्वभाव के चलते फिर मना करेगी। दरवाजे पर पहुँचते ही दोनों बच्चों ने आवाज लगाई -” भारती…!”
“हाँ जी…कौन ? अरे ! तुम लोग आओ…आओ…अंदर आओ।” रूपाली और दिनेश को दरवाजे से ही भारती की मम्मी की आवाज सुनाई दी।
“नमस्ते अंटी !” घर अंदर आते ही रूपाली और दिनेश के हाथ जुड़ गए। फिर उन्हें भारती की मम्मी ने बिठाया। कुछ समय तक इधर-उधर की बातें हुई। चाय-पानी का दौर चला। फिर मुद्दे पर आए।” देख भारती ! न मत कहना… इस बार तू जरूर जाएगी हम लोगों के साथ। हम तुम्हें लेने ही आए हैं।” दिनेश ने भारती की मम्मी की ओर देखते हुए कहा -” हाँ ना अंटी, हर बार ऐसे ही करती है भारती। भेजो न जरूर इसे इस बार।”
“हाँ…हाँ….भेजो ना अंटी भारती को हमारे साथ। और भारती तू चल…जल्दी तैयार हो। अभी चलना है।” रूपाली सोफे पर सरकती हुई भारती के पास गयी। आखिर ना-नुकुर करती भारती को रूपाली और दिनेश ने मना ही लिया।
रूपाली, दिनेश और भारती प्रदीप के घर पहुँचे। प्रदीप अपने बर्थडे की पूरी तैयारी कर चुका था। सभी एक-दूसरे को देखकर बहुत खुश हुए। यहाँ अन्य सहपाठियों से भी मुलाकात हो गयी ; सबको और अच्छा लगा। प्रदीप बहुत खुश लग रहा था। उसके मम्मी-पापा ने टी टेबल पर केक को रखा। दिये जलाए। प्रदीप की आरती उतारी। टीका लगाए। फिर जैसे ही प्रदीप ने केक की जलती हुई मोमबत्तियाँ बुझाई ; सभी बच्चों ने” हैप्पी बर्थडे टू यू प्रदीप…हैप्पी बर्थडे टू यू पप्पू… प्रदीप…।” कहकर तालियाँ बजाई। प्रदीप के चेहरे पर प्रसनन्ता तैर रही थी। सबकी गिफ्ट लेते हुए प्रदीप का” थैंक्स…! थैंक यू…”चलता रहा। फिर प्रदीप की मम्मी ने सब को केक दिया। सभी केक का आनंद लेने लगे। सबको चाक्लेट्स मिले। चाय की चुस्कियाँ चली। फ्रुट्स भी मिले सब को। कमरे भर मुस्कान, हँसी व ठहाके पसर गए। अंत में अंताक्षरी की बारी आई। सभी बड़े आनंदित थे। तभी अचानक भारती को खाँसी आई। प्रदीप की छोटी बहन वंदना पानी लेकर आई। पानी पीते ही भारती बोली -” अरे वाह ! बड़ा स्वाद है पानी का। मस्त ठंडा है इतनी गर्मी में। कहाँ का पानी है छुटकी ?”
“नल का है दीदी…!” वंदना तपाक से बोली। वंदना की बात सुन कर सभी हँस पड़े। ‘ नहीं… वंदू…! दीदी के पूछने का मतलब है कि किसमें रखा हुआ पानी से है ?” प्रदीप की मम्मी बोली -” भारती बिटिया, वंदू गिलास में पानी जो लाई ना…जिसे तूने पीया, वो मटके का पानी है।”
“मटके का पानी…!” भारती का अचंभित स्वर उभरा।” हाँ बिटिया।” प्रदीप की मम्मी ने सर हिलाया।
“इतना बढ़िया ठंडा पानी, और मस्त मीठा। फ्रिजर का पानी जैसा जी।” भारती की बात की जोर पर सबने पानी पीया। बोले -” इतना मस्त ठंडा कैसे हो सकता है एक मटके का पानी ?”
“और क्यों ठंडा होता है आखिर इसका पानी ?” सहसा सभी के मुँह से सिर्फ एक ही प्रश्न निकला। अब बच्चों के जिज्ञासापूर्ण प्रश्न का उत्तर देना प्रदीप-वंदना के पापा के लिए बहुत जरूरी था। उनके पास इस प्रश्न का उत्तर था भी, आखिर वे साईंस के अध्यापक जो थे। बताने लगा -” बच्चों, असल में होता क्या है कि मिट्टी के मटके की दीवार पर बहुत ही छोटे-छोटे छेद होते हैं, जिससे हमेशा पानी रिसता रहता है। इन छिद्रों से निकले पानी का वाष्पीकरण होता है और जिसके कारण मटके की दीवार हमेशा गीली रहती है और वाष्पीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है, इसीलिए मटके के अंदर का पानी ठंडा रहता है। अब तुम सब समझ गये ना, मटके का पानी क्यों ठंडा होता है।” सबने हाँ में सर हिलाया।
आज बच्चे बहुत खुश थे ; और क्यों न होंगे…आखिर उन्हें विज्ञान की एक अच्छी जानकारी जो मिली थी।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”