कविता

मैं अनजान हूँ

बेशक तुम्हारे लिए मैं अनजान हूँ
पर मैं तुम्हारा दुश्मन तो नहीं !
भगवान की मूर्ति को रोज पुजते हो
पर अनजान आदमी को देखकर,
खानदानी दुश्मन की तरह क्यों घूरते हो।
भगवान पर मर मिटने वाले !
ज़रा दो पल मुझ अनजान से भी,
हँसकर बात तो कर लो।
न मैं तुम्हारा सम्पत्ति लूटने आया हूँ,
न मैं तुम्हें धोखा देने आया हूँ !
मैं तो बस तुमसे पता पुछने आया हूँ।
अनजान हूँ मैं तुम्हारे इस शहर से,
अजनबी इन भुलभुलैया डगर से।
मुझे मेरे गंतव्य का पता तो बता दो?
अनजान होना कोई गुनाह तो नहीं है!
मुझे इतना तो मत सताया करो
सिर्फ पता बताने के लिए ही,
तीखे स्वर से मुझे रुलाया ना करो।
सिर्फ एक पल के मुलाकात में,
मुझे चोर – लुटेरा तो मत समझो
भीड़ से भरी इस दुनिया में,
सबको एक जैसा तो मत समझो।
क्या मतलब तुम्हारे शिक्षित होने का !
जब तुम अच्छे – बुरे का पहचान नहीं कर सकते
अनजानों की भरी बस्ती से,
क्या तुम अपने जैसे एक भी नहीं ढूंढ सकते।

— हितेश्वर बर्मन ‘चैतन्य’

हितेश्वर बर्मन चैतन्य

डंगनिया (कोसीर), सारंगढ़ , छत्तीसगढ़ email - [email protected]

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