मंदिर-मठों में दलितों की हिस्सेदारी एक विश्लेषण
भारतीय समाज की धार्मिक संरचनाएँ – विशेषकर मंदिर और मठ केवल आध्यात्मिक केंद्र नहीं हैं, बल्कि ये सदियों से सामाजिक वर्चस्व और जातिगत सत्ता के आधार भी बने रहे हैं। जहां एक ओर ये स्थल श्रद्धा, संस्कृति और आस्था के प्रतीक हैं, वहीं दूसरी ओर ये अनेक बार जातिवादी भेदभाव और सामाजिक बहिष्करण के भी केंद्र रहे हैं। विशेषतः दलित समुदाय को इन धार्मिक संस्थानों से दूर रखा गया – न केवल पुजारी बनने से, बल्कि मंदिर प्रवेश तक से वंचित कर दिया गया।
समाज में सुधार की अनेक लहरें चलीं, संविधान ने समानता का अधिकार दिया, पर क्या मंदिरों और मठों की संरचना में वह समता आ सकी? क्या आज भी एक दलित पुजारी या महंत समाज की वैसी ही स्वीकृति प्राप्त करता है जैसा एक ब्राह्मण पुजारी करता है? इसका उत्तर खोजना समाज की जिम्मेदारी है।
इतिहास की छाया: मंदिरों में दलितों की निष्क्रियता
भारतीय धार्मिक परंपरा में ब्राह्मणों को पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों का एकमात्र अधिकारी माना गया। मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों ने स्पष्ट रूप से दलितों को ‘अस्पृश्य’ कहा और उन्हें धार्मिक स्थलों से दूर रखा गया। मंदिरों में उनकी ‘शारीरिक उपस्थिति’ तक वर्जित रही।
हालाँकि कुछ ऐतिहासिक उदाहरण अपवाद के रूप में सामने आते हैं:
- संत रविदास, चोखामेला, नामदेव, कबीर जैसे संतों ने भक्ति आंदोलन में भाग लेकर धार्मिक परंपराओं को चुनौती दी, लेकिन इनकी संस्थागत स्वीकार्यता मंदिर व्यवस्थाओं में नहीं थी।
- दलितों को धर्म से विमुख करने और धर्मांतरण की प्रवृत्तियों का एक प्रमुख कारण यही सामाजिक बहिष्करण था। जो कि आंशिक रूप से अभी भी व्याप्त है।
समकालीन परिप्रेक्ष्य: हालात बदल रहे हैं, पर धीरे
समय के साथ, सामाजिक सुधार आंदोलनों, संविधानिक अधिकारों और सरकारी नीतियों के चलते कुछ सकारात्मक बदलाव हुए हैं। हालांकि, ये बदलाव काफी सीमित और प्रतीकात्मक हैं।
महत्वपूर्ण आधुनिक उदाहरण:
- लखना काली मंदिर, इटावा (उत्तर प्रदेश)
- पिछले 200 वर्षों से दलित पुजारी इस मंदिर में पूजा कर रहे हैं।
- स्थापना राजा जसवंत राव ने की थी, जिन्होंने दलित छोटे लाल को पुजारी नियुक्त किया। इस मंदिर में मेरा स्वयं आना जाना बना रहता है।
- लोदी बाबा मंदिर, अमेठी (उत्तर प्रदेश)
- यहां परंपरागत रूप से केवल दलित पुजारी ही सेवा करते हैं।
- यह मंदिर सामाजिक समरसता का प्रतीक बना है।
- माँ पंचुबरीही मंदिर, केंद्रपाड़ा (ओडिशा)
- पिछले 500 वर्षों से दलित महिलाएं पुजारिन हैं।
- यह संभवतः भारत का एकमात्र ऐसा मंदिर है।
- तमिलनाडु सरकार की पहल (2021)
- राज्य सरकार ने 24 दलित पुजारियों को सरकारी मंदिरों में नियुक्त किया।
- विश्व हिंदू परिषद (VHP) द्वारा पहल
- अब तक 5000 से अधिक दलितों को पुजारी बनने का प्रशिक्षण दिया जा चुका है।
- विशेषकर दक्षिण भारत में ये पुजारी सक्रिय हैं।
समस्याएँ और बाधाएँ:
- ब्राह्मणिक वर्चस्व – अधिकांश मंदिरों और मठों में पुजारी या महंत केवल उच्च जातियों से ही नियुक्त किए जाते हैं।
- सामाजिक मानसिकता – दलित पुजारी की पूजा को स्वीकार न करना आज भी कई समुदायों की सोच में शामिल है।
- प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व – जिन मंदिरों में दलित पुजारी हैं, वे अपवाद हैं, न कि सामान्य सामाजिक परिदृश्य।
- संस्थागत प्रतिरोध – कई धार्मिक निकाय खुद को परंपरा के नाम पर इन बदलावों के विरुद्ध रखते हैं।
भविष्य की संभावनाएँ: एक समतामूलक धार्मिक व्यवस्था
प्रगति के रास्ते:-
- सरकारी नीति: सभी धार्मिक न्यासों और मंदिर प्रबंधन संस्थाओं में समान अवसर और आरक्षण की व्यवस्था लागू होनी चाहिए।
- शिक्षा और प्रशिक्षण: दलित समुदाय के युवाओं को वैदिक, पौराणिक और धर्मशास्त्रीय प्रशिक्षण के लिए विशेष संस्थान खोलने चाहिए।
- शायद धार्मिक ग्रंथों की पुनर्व्याख्या: परंपरा के नाम पर चली आ रही जातीय पवित्रता की अवधारणा को चुनौती देने की आवश्यकता है।
- सामाजिक जागरूकता अभियान:
- मीडिया, साहित्य, सिनेमा और शिक्षा के माध्यम से दलित पुजारियों की स्वीकार्यता को बढ़ावा देना होगा।
-महिला दलित पुजारियों को विशेष सम्मान:
केंद्रपाड़ा जैसी मिसालें देश भर में दोहराई जानी चाहिए।
निष्कर्षता:-
इस लेख को लिखना मेरा किसी की आस्था एवं हृदय को आहत करना नहीं है बल्कि सामाजिक समरता लाने का प्रयास है।
मंदिर और मठ किसी भी समाज के आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक नेतृत्व के भी केंद्र होते हैं। यदि इन संस्थाओं में आज भी जातिगत भेदभाव कायम है, तो यह संविधान की आत्मा – “समानता” – के साथ अन्याय है।
हालांकि कुछ ठोस कदम उठाए गए हैं, पर वे केवल प्रतीकात्मक हैं। आवश्यकता है कि मंदिरों और मठों की व्यवस्था में संस्थागत, नीति-आधारित और मानसिक बदलाव लाया जाए, ताकि एक दिन हर व्यक्ति – चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग से हो भगवान के सबसे करीब खड़ा हो सके, और समाज उस ईश्वर से बड़ा न बने।
यह विषय केवल धार्मिक नहीं, गंभीर सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श का विषय है। यदि यह परिवर्तन होता है, तो यह भारतीय समाज के लिए एक नई क्रांति जैसा होगा एक धार्मिक समता की क्रांति लाएगा।
— शिवम यादव “अंतापुरिया”