उस नारायण से नाता है
मैं दिव्य -सनातन- सत्य तत्व।
मैं परमात्मा का अंश अमर।
मुझसे है साँसों का प्रवाह।
मेरी अनुभूति सहज सुंदर।
मेरे समीप जो आता है,
वह मुझमें ही खो जाता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
मैं हूँ मधुवन की मंद हवा,
निर्मल सुगंध बिखराता हूँ।
रहता हूँ मैं अदृश्य किंतु,
आनन्द -सुधा बरसाता हूँ।
जो भी मुझमें रम जाता है,
जग को भी वो बिसराता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
मुझमें कस्तूरी की सुगंध,
सब खोज-खोज थक जाते हैं।
जग से आती यह मंद सुरभि,
यों सोच भ्रमित हो जाते हैं।
जिसने मुझको पहचान लिया,
जग नहीं उसे भरमाता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
मैं हूँ दीपक की अचल ज्योति,
हिय में जो जलती रहती है।
पाकर मुझसे ही उजियारा,
इन्द्रियाँ कर्मरत रहती हैं।
मेरे प्रकाश के पड़ते ही,
अज्ञान-तिमिर मिट जाता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
सत-रज-तम से हूँ परे सदा,
मुझको न कहीं कुछ बंधन है।
धारणा,ध्यान,अविचल समाधि,
मुझको पाने के साधन हैं।
जो भी मुझको पा जाता है,
वह भवसागर तर जाता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
प्रभु को अर्पित सब कर्म करो।
फल की चिंता का त्याग करो।
कर्मों के बंधन को तोड़ो।
मन में विराग का राग भरो।
जिसने विराग को साध लिया,
मुझमें विलीन हो जाता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
बनकर प्रारब्ध उदित होते,
पिछले जन्मों के कर्म सकल।
है सहज भक्ति का मार्ग यहाँ,
जिससे होता है मोक्ष सफल।
जब बिन्दु सिन्धु से मिलता है,
वह भी सागर हो जाता है।
मेरा स्वरूप है निर्विकार,
उस नारायण से नाता है।
— निशेश अशोक वर्धन