मेहनत के मूल्य और गरिमा के संघर्ष का प्रतीक
हर साल दुनियाभर में मई दिवस मनाया जाता है। पिछले 140 साल से 1 मई को श्रमिक वर्ग सड़कों पर उतर कर जो संदेश देता है वह कोई रस्म अदायगी नहीं होती। अलबत्ता मेहनतकशों को मई दिवस पर यह अहसास करवाते देखा जा सकता है कि वे भी बतौर नागरिक उतने ही इस दुनिया के हकदार हैं जितना और कोई।
बदकिस्मती से इस साल मई दिवस भारत के श्रमिकों को आतंकवाद के खात्मे के संकल्प के साथ पहलगाम की काली छाया में मनाना पड़ेगा। विगत में रोजी-रोटी के लिए जाने वाले प्रवासी मजदूर भी कश्मीर में आतंकवाद का शिकार हुए। आशा करें, शीघ्र स्थिति सामान्य हो, जिंदगी पटरी पर लौटे। महंगाई, बेरोज़गारी और अन्य समस्याओं से श्रमिक और वेतनभोगी वर्ग आज बदहाल है। विश्व पूंजीवाद का अभूतपूर्व संकट महाशक्तियों के बीच हो रही खींचतान के रूप में सामने है। इस उठापटक के सबसे ज्यादा भुगतभोगी मजदूर, किसान और छोटे कर्मचारी बन रहे हैं।
जिन विकसित देशों में पहले औद्योगिकरण हुआ उसके परिणामस्वरूप पहली बार जागरूक वर्ग के तौर पर मजदूर वर्ग अस्तित्व में आया। अमेरिका के शहर शिकागो में 1886 में हजारों मजदूरों ने अधिकतम 8 घंटे के काम की मांग को उठाते हुए एक स्थान पर एकत्रित होकर अपनी आवाज़ बुलंद की थी। भारत में पहली बार मई दिवस का आयोजन 1925 में तत्कालीन मद्रास में सिंघारावेलू चेट्टियार के नेतृत्व में आयोजित किया गया था जिसका संदेश ब्रिटिश साम्राज्य और पूंजीवाद से मुक्ति पाना था।
काफी लोग मानते आए हैं कि 1 मई के विरोध प्रदर्शन पर की गई पुलिस फायरिंग में 8 मजदूर शहीद हुए जिन्हें श्रद्धांजलि देने हेतु यह दिवस मनाया जाता है। परंतु वास्तव में हुआ यह था कि 1 मई की सभा के दो दिन बाद 3 मई को उसी स्थान पर एक फैक्टरी में की गई तालाबंदी के खिलाफ हड़ताली मजदूरों की शांतिपूर्वक जारी सभा के अंत में षड्यंत्र के तहत किसी एजेंट ने पुलिस पर फायरिंग की जिसमें एक श्रमिक शहीद हो गया। मजदूरों का नेतृत्व करने वाले 8 नेताओं पर मुकदमे दर्ज कर दिये गए और आनन-फानन में 6 श्रमिक नेताओं को फांसी दे दी गई। एक व्यक्ति को उम्रकैद की सजा दी और एक अन्य जेल में मृत पाया गया। मनघड़ंत अभियोग के कारण यह मुकदमा ऐतिहासिक माना जाता है।
दरअसल, मुकदमे में नामजद किए गए 8 में से 6 श्रमिक नेता उस दिन घटनास्थल पर उपस्थित ही नहीं थे। जिस श्रमिक नेता की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया गया उसे 6 साल बाद इलीनोई के गवर्नर ने यह कह कर बरी कर दिया कि दंडित किए गए किसी भी अभियुक्त के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं थे। पूंजी और श्रम के बीच हितों के बुनियादी अंतर्विरोध के चलते अपने श्रम का उचित मूल्य मांगने वाले श्रमिकों में दहशत फ़ैलाने के उद्देश्य से जो हिंसक और दमनकारी हथकंडे अपनाये जातेे हैं वे आज भी असामान्य बात नहीं।
आधुनिक जीवन सामाजिक उत्पादन से चलता है। उत्पादन करने वाले बुनियादी वर्ग मजदूर, किसान व अन्य वे लोग हैं जो अपनी मेहनत करके आजीविका चलाते हैं। इनके अलावा वे तबके जो सेवा क्षेत्र में काम करते हैं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, जनकल्याण आदि। सेवा क्षेत्र से सामाजिक उत्पादन संभव हो पाता है व समाज को बुलंदियों की ओर ले जाता है। नई तकनीक भी समाज के निरंतर व सामूहिक प्रयासों का प्रतिफल होती है।
जो भी प्रौद्योगिकी या तकनीक समाज विकसित करता है वह कष्टों को कम कर जीवन सुगम बनाने को करता है। विडंबना यह कि पूंजीवादी व्यवस्था में तकनीक के ऊपर पूंजीपति का नियंत्रण होने के कारण उसी तकनीक का प्रयोग न केवल श्रमिकों की संख्या घटाने और शोषण बढ़ाने में किया जाता है बल्कि श्रमिक को उत्पादन प्रक्रिया से हटाकर बेरोज़गारी में धकेला जाता है। आज यह प्रक्रिया चरम पर है।
देश में सकल उत्पादन में जो शुद्ध मूल्य वर्धन अर्जित होता है उसमें मालिकों के मुनाफे का अंश लगातार बढ़ रहा है और श्रमिकों या कर्मचारियों के वेतन का अंश घट रहा है। मुनाफे का हिस्सा 2020 में 38.7 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 51.9 प्रतिशत हो गया जबकि इसी अवधि में वेतन का हिस्सा 18.9 प्रतिशत से घटकर 15.9 प्रतिशत रह गया। इससे भयंकर आर्थिक विषमताएं पैदा हो गई हैं और भारत दुनिया का सबसे गैर-बराबरी वाला देश है। फिर भी श्रम कानूनों को तिलांजलि देकर कार्पोरेट परस्त चार श्रम संहिता (लेबर कोड) संसद में पास कर दिए गये। जो श्रमिकों यूनियनों के विरोध के कारण लागू नहीं हो सके।
भयानक बेरोज़गारी और आमदनी के घटने से लोगों की खरीद शक्ति बहुत कम हो गई है। बाजारों में ठहराव है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और कार्पोरेट सेक्टर अपने मुनाफे को उच्चतम स्तर पर रखने के लिए श्रमिकों के वेतन व अन्य सुविधाओं में कटौती करने पर आमादा रहता है। वह रोजगार को अनौपचारिक और ठेका प्रथा पर ले आया है। इसके विपरित गुलामी प्रथा की ओर धकेला जा रहा श्रमिक वर्ग रोजगार की ऐसी परिस्थितियों के लिए संघर्ष की ओर बढ़ेगा जो न्यूनतम गरिमापूर्ण अस्तित्व के लिए पर्याप्त हों। यह अंतर्विरोध दुनियाभर में देखा जा सकता है। 90 प्रतिशत से भी अधिक श्रमिक आज भारत में असंगठित क्षेत्र में आते हैं जिनका हिस्सा लगातार बढ़ रहा है। इनमें परियोजना और ‘गिग’ वर्कर भी शामिल हैं।
आज का मई दिवस किसान मजदूर एकता, परस्पर सद्भाव की भावना के पक्ष में और साम्राज्यवाद व कारपोरेट गठजोड़ आदि को चुनौती देते हुए अपने लिए एक गरिमामय जीवन का संदेश लिए हुए है।
— विजय गर्ग