लघुकथा : उम्म़ीद
लगभग साल भर हो गया आफिया के अब्बाज़ान अफ़ज़ल मियाँ का इंतकाल हुए। हर साल अफ़ज़ल आफिया-रियाज की शादी के सालगिरह पर उन्हें मुबारकबाद देने आया करते थे। पता नहीं क्यों आज, रियाज को आफिया के चेहरे पर वही उम्मीद दिखी, जो अक्सर सालगिरह के दिन दिखा करती थी। न चाहते हुए रियाज आफिया के करीब गया। सर पर दुपट्टा चढ़ाते हुए बोला- “मेरी प्यारी बेगम ! मेरी जान ! न…न…न…! उम्मीद मत रखो इस दफा। अब्बू जान नहीं आ पायेंगे आज।” रियाज की बातें सुन आफिया कुछ न बोली। डबडबाई आँखें लिये मुस्कुराती हुई दरवाजे के पास गयी- “जानती हूँ रियाज। मेरे अब्बू नहीं आयेंगे। पर मुझे उम्मीद है, हसन मियाँ जरूर आयेंगे। आखिर वह मेरा बड़ा भाई है न। अब तो वे ही मेरे अब्बाजान हैं।” आफिया को रियाज अचरज भरी निगाहों से देख रहा था।
— टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’