लघुकथा

कैसे पढ़ूं

पूरे घर में मुर्दनी छा गई थी। मां के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई मां, रो-रो कर थक चुकी मां के पास चुपचाप बैठी गांव की औरतें। सफेद कपड़े में लिपटे गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को उसने पहली बार रोते देखा था…
‘शुचि!’ टीचर की कठोर आवाज से मस्तिष्क में दौड़ रही घटनाओं की रील कट गई और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई। ‘तुम्हारा ध्यान किधर है? मैं क्या पढ़ा रही थी… बोलो?’ वह घबरा गई। पूरी क्लास में सभी उसे देख रहे थे। ‘बोलो!’ टीचर उसके बिल्कुल पास आ गई।
‘भगवान ने बच्चा वापस ले लिया…।’ मारे डर के मुंह से बस इतना ही निकल सका। कुछ बच्चे खी-खी कर हंसने लगे। टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा। ‘स्टैंड अप आन द बैंच!’
वह चुपचाप बैंच पर खड़ी हो गई। उसने सोचा… ये सब हंस क्यों रहे हैं, मां-पिताजी, सभी तो रोए थे, यहां तक कि दूध वाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे और उससे कुछ अधिक ही प्यार से पेश आए थे। वह ब्लैक-बोर्ड पर टकटकी लगाए थी, जहां उसे मां के बगल में लेटा प्यारा-सा बच्चा दिखाई दे रहा था। हंसते हुए पिताजी ने गुड्डे को उसकी नन्ही बांहों में दे दिया था। कितनी खुश थी वह!
‘टू प्लस फाइव-कितने हुए?’ टीचर बच्चों से पूछ रही थी।
शुचि के जी में आया कि टीचर दीदी से पूछे जब भगवान ने गुड्डे को वापस ही लेना था तो फिर दिया ही क्यों था? उसकी आंखें डबडबा गईं। सफेद कपड़े में लिपटा गुड्डे का शव उसकी आंखों के आगे घूम रहा था। इस दफा टीचर उसी से पूछ रही थी। उसने ध्यान से ब्लैक-बोर्ड की ओर देखा। उसे लगा ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े की तरह सफेद रंग का हो गया है। उसे टीचर दीदी पर गुस्सा आया। सफेद बोर्ड पर सफेद चाक से लिखे को भला वह कैसे पढ़े?

— विजय गर्ग

*विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट

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