विश्वासघात
पीर विश्वासघात की ऐसे ।
खुला आकाश, वस्त्र जर्जर हो,
और अगहन की रात हो जैसे।
जेठ की जलती दोपहर जैसे।
महामारी का हो कहर जैसे ।
प्यास से प्राण कंठ में आयें,
और हो नीर मे जहर जैसे ।
टूटे कमजोर आश जीवन की ,
और मरने की बात हो जैसे ।
पीर विश्वासघात की ऐसे।
घाव में कांटा चुभाये कोई ।
या चिता खुद की सजाये कोई ।
थक के तैराक किनारे आये,
खींचकर उसको डुबाये कोई ।
जिंदगी ब्याहने को निकली हो ,
मौत की एक बरात हो ,जैसे।
पीर विश्वासघात की ऐसे ।
खा रही मन को, गलाये तन को।
शूल बन चुभती मेरे जीवन को ।
पीठ पर घाव दिये अपनो नें,
कैसे दिखलाता भला जन जन को ?
जिसकी पहली किरण से मर जाऊं,
ऐसे कोई प्रभात हो जैसै ।
पीर विश्वासघात की ऐसे ।
—–© दिवाकर दत्त त्रिपाठी