आभासी से ज्यादा कीमती है असली जिंदगी
हाल में एक इंटरनेट मीडिया इन्फ्लुएंसर, मिशा ने आत्महत्या कर ली, जिसका कारण इंस्टाग्राम पर फालोअर्स और लाइक्स की घटती संख्या बताया जा रहा है। उसकी पहचान और आत्मविश्वास पूरी तरह से उसकी वर्चुअल उपस्थिति से जुड़े थे। जब उसका ‘डिजिटल आईना’ दरका, तो वह खुद को पहचान नहीं पाई। यह घटना एक गंभीर पैटर्न को दर्शाती है, जिसे हम अनदेखा कर रहे हैं। आज की पीढ़ी ‘लाइक्स’ और ‘फालोअर्स’ के जंगल में भटक रही है। बच्चे अब किताबों से नहीं, बल्कि रील्स से दुनिया को समझते हैं।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर घंटे औसतन एक छात्र आत्महत्या कर रहा है। इन आत्महत्याओं का कारण अब केवल परीक्षा या नौकरी नहीं, बल्कि आनलाइन पहचान भी है, जो पल में बनती और मिटती है। हमने बच्चों को ‘प्रेजेंटेशन’ बनाना सिखाया, लेकिन खुद से बात करने का कौशल नहीं सिखाया। हमने उन्हें ‘पब्लिक स्पीकिंग’ सिखाई, लेकिन ‘आत्म-स्वीकृति’ की भाषा नहीं सिखाई। हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर चुके हैं, जहां रील्स पर हंसते हुए युवा वर्ग अंदर ही अंदर घुट रहा है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस के एक अध्ययन के अनुसार, इंटरनेट मीडिया से अत्यधिक जुड़ाव रखने वाले 70 प्रतिशत युवा समय-समय पर डिप्रेशन, चिंता या आत्म-संदेह का सामना करते हैं। आत्मसम्मान का मूल्य अब ‘फालोअर्स’ की संख्या में मापा जा रहा है। जब आभासी दुनिया से मिलने वाली मान्यता घटती है, तो कई युवा खुद को व्यर्थ मानने लगते हैं। हम केवल यह देखते कि कोई यूट्यूबर एक करोड़ कमा रहा है, लेकिन यह नहीं पूछते कि वह किन तनावों से गुजर रहा है। स्कूलों में ‘डिजिटल इथिक्स’ की जगह ‘कोडिंग’ सिखाई जा रही है, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि हम बच्चों को समझाएं कि वर्चुअल दुनिया में खुद को खो देना ‘प्रोग्रेस’ नहीं, बल्कि ‘पतन’ है।
सरकार को चाहिए कि इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स को रेगुलेट करे। फालोअर्स का उतार-चढ़ाव ‘जीवन और मृत्यु’ का सवाल न बन पाए, इसके लिए एल्गोरिदम से ज्यादा संवेदना की आवश्यकता है। समाज, परिवार और शिक्षा प्रणाली को यह स्वीकार करना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य कोई ‘लग्जरी’ विषय नहीं है, यह उतना ही अनिवार्य है जितना शारीरिक स्वास्थ्य | स्कूलों में ‘डिजिटल मानसिक स्वास्थ्य’ को एक विषय के रूप में शामिल करना चाहिए। बच्चों को यह सिखाना होगा कि उनकी असली पहचान और आत्मसम्मान स्क्रीन पर दिखने वाले आंकड़ों से नहीं जुड़ने चाहिए। हमें अपने बच्चों से कहना चाहिए, “तुम जैसे हो, वैसे ही ठीक हो। तुम्हारी अहमियत किसी स्क्रीन पर नहीं, इस जीवन में है। “
— विजय गर्ग