गर्मी निशदिन बढ़ती जाए
गर्मी निशदिन बढ़ती जाए,व्याकुल मन दिन रैन।
हर पल मेरा मन घबराए, पाऊँ कहीं न चैन।।
सकल सृष्टि की महिमा न्यारी,उचित सजाती साज।
जीव -जन्तु या वन-उपवन का,करती उचित इलाज।।
रखे संतुलित वह सबको ही,जैसे बने विधान।
नहीं रखे पर मानव निज उर ,सृष्टि कर्म का ध्यान।।
माया लोभी बनकर देखो,करता वन संहार।
नहीं सोचता संतति जीवन,करे आज से प्यार।
नहीं देखता क्रोध प्रकृति का,बंद करे निज नैन।
हर पल मेरा मन घबराए, पाऊँ कहीं न चैन।।
प्रकृति हनन से बढ़ा प्रदूषण,हुई विषैली वायु।
कितनी उन्नति विज्ञान करे, घटे नित्य पर आयु।।
पत्थर कानन धूम मचाते,करते हैं संवाद।
गलत पंथ पर मानव दौड़ा,किया जगत बर्बाद।
सृष्टि चलेगी अब तो कैसे,हरित प्रकृति हो दूर।
नवल रोग हैं बढ़ते जाते,प्राणी हों काफूर।।
मानव खोया अर्थ लोभ में,तज चिन्ता दिन रैन।
हर पल मेरा मन घबराए, पाऊँ कहीं न चैन।।
— डॉ. ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम