बाल कविता
मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
मक्खियाँ क्या छोड़ देतीं, मस्त झाड़ा ||
चूस करके खून तुम शेखी बघारो |
गुन-गुनाकर गीत, सोते जान मारो ||
इस तरह से दिग्विजय घंटा करोगे |
सो चुके इंसान पर टंटा करोगे ||
मर्म-अंगों पर जहर के डंक मारो |
चढ़ चला ज्वर जोरका मष्तिष्क फाड़ो ||
पहले सुबह या शाम ही काटा किये |
अब रात भर डेंगू – दगा बांटा किये ||
रक्त-मोचित सब चकत्ते नोचते हैं |
नष्ट करने के तरीके खोजते हैं ||
तालियों के बीच तू जिस दिन फँसेगा |
जिन्दगी से हाथ धो, किसपर हँसेगा ||
नीम के मारक धुंवे से न बचेगा —
राम का मैदान हो या सुअर बाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
मक्खियाँ क्या छोड़ देतीं, खूब झाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों की पोल खोली |
मार कर लाखों-करोड़ों आज बोली ||
गन्दगी देखी नहीं कि बैठ जाती –
और दुनिया की सड़ी हर चीज खाती ||
“मारते” तुझको निठल्ले बैठ खाली –
“बैठने से नाक पर” जाती हकाली ||
कालरा सी तू भयंकर महामारी |
अड़ा करके टांग करती भूल भारी ||
मधु की मक्खी आ गईं रोकी लड़ाई |
बात रानी ने उन्हें अपनी बताई —
फूल-पौधों से बटोरूँ मधुर मिष्टी |
मजे लेकर खा सके सम्पूर्ण सृष्टी ||
स्वास्थ्यवर्धक मै उन्हें माहौल देती |
किन्तु बदले में नहीं कुछ और लेती ||
किन्तु दोनों शत्रु मिलकर साथ बोले–
मत पढ़ा उपकार का हमको पहाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
मक्खियाँ क्या छोड़ देतीं, खूब झाड़ा ||
कभी कभी कवि की कलम, बहके चहके मित्र।
दो दुष्टो के द्वंद में, गति मध्यस्थ विचित्र।
गति मध्यस्थ विचित्र, हास्य का लिया सहारा।
दिया सरल संदेश, नहीं कुछ ताना मारा।
कह रविकर कुछ और, पढ़े रचनायें मेरी।
बने धारणा सत्य, करें मत भैय्या देरी।।
— दिनेश चन्द्र गुप्ता ‘रविकर’