राजनीति

संविधान की रक्षा में न्यायपालिका कहां कर रही है चूक ?

विविधताओं से भरे भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका को संविधान का सबसे बड़ा रक्षक माना जाता है। यह न केवल कानून की व्याख्या करती है, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी करती है,लेकिन क्या ऐसा करते समय न्यायपालिका से कहीं न कहीं चूक हो जाती है ? या फिर जानबूझ कर अथवा अंजाने में कुछ न्यायविद किसी मुकदमे में फैसला सुनाते समय व्यक्तिगत हो जाते हैं,जिसको लेकर विरोधाभास भी हो जाता है। जबकि राष्ट्रहित और आतंकवादी घटनाओं से जुड़े मामलों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप कई बार विवादों को जन्म देता है। नया कृषि कानून, वक्फ बोर्ड संशोधन कानून में सुप्रीम कोर्ट की अति सक्रियता इसकी बड़ी मिसाल हैं। यह हस्तक्षेप कब रक्षक की भूमिका निभाता है और कब खतरनाक साबित हो सकता है, इसको लेकर अक्सर विवाद बना रहता है। आतंकवादियों को सजा सुनाने में देरी का मामला हो या फिर देश विरोधी ताकतों को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर खुली छूट को कानूनी संरक्षण देना इसी श्रेणी में आता है। संसद द्वारा बनाये गये कानून को बेवजह लटका देना भी न्यायपालिका के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा बना रहता है।
यहां सेना के एक पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल देवेंद्र प्रताप पांडे के बयान का जिक्र करना जरूरी है,जो 22 अप्रैल को पहलगाम में 27 हिन्दुओं की आतंकवादियों द्वारा की गई सामूहिक हत्या के बाद सामने आया था। पांडे ने तब कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को पहलगाम जाना चाहिए, ताकि वे आतंकी हमले की वास्तविकता को समझ सकें. पांडे ने एक न्यूज एजेंसी को दिये इंटरव्यू  में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में हस्तक्षेप किया, जिसके चलते सरकार और सेना के फैसलों में देरी हुई. उनके मुताबिक, जजों ने आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए, जो इस हमले का एक कारण बने. पांडे ने कहा कि जजों को पहलगाम जाकर स्थानीय हालात, आतंकवाद का असर और सुरक्षाबलों की चुनौतियों को अपनी आंखों से देखना चाहिए. उन्होंने जोर दिया कि कोर्ट को केवल कानूनी नजरिए से नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत को समझकर फैसले लेने चाहिए. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से अपील की कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में सरकार और सेना को स्वतंत्र रूप से काम करने दे.

गौरतलब हो,राष्ट्रहित एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें देश की सुरक्षा, आर्थिक स्थिरता, सामाजिक समरसता और संप्रभुता शामिल हैं। आतंकवाद, जो वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर चुनौती है, राष्ट्रहित को सीधे प्रभावित करता है। आतंकवादी घटनाओं से निपटने के लिए सरकारें कठोर कानून बनाती हैं, जैसे यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम) या एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम)। इन कानूनों का उद्देश्य त्वरित कार्रवाई और अपराधियों को दंडित करना होता है, लेकिन कई बार ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का माध्यम भी बन जाते हैं। यहीं से न्यायपालिका की भूमिका शुरू होती है, जो सरकार की कार्रवाइयों की संवैधानिकता की जांच करती है।

आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दों पर न्यायपालिका का अति-हस्तक्षेप कई बार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है। आतंकवादी गतिविधियां तेजी से बदलती है, और इनसे निपटने के लिए जांच एजेंसियों को त्वरित निर्णय लेने की स्वतंत्रता चाहिए। कई बार न्यायालयों के बार-बार के हस्तक्षेप से जांच प्रक्रिया बाधित होती है। उदाहरण के लिए, कुछ हाई-प्रोफाइल आतंकवादी मामलों में संदिग्धों को जमानत देना या सबूतों की स्वीकार्यता पर लंबी सुनवाई करना जांच को कमजोर कर सकता है। 2008 के मुंबई हमलों के बाद अजमल कसाब के मामले में न्यायिक प्रक्रिया को पूरा करने में वर्षों लग गए, जिससे कई सवाल उठे कि क्या ऐसी प्रक्रियाएं आतंकवाद से लड़ने में बाधा बनती हैं।

न्यायपालिका के हस्तक्षेप का एक और खतरनाक पहलू तब सामने आता है, जब यह कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण करती है। राष्ट्रहित से जुड़े मामलों, जैसे सीमा सुरक्षा या आतंकवाद-रोधी नीतियों में, कार्यपालिका को त्वरित और गोपनीय निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। यदि न्यायालय इन निर्णयों की बार-बार समीक्षा करने लगे, तो यह सरकार की कार्यक्षमता को प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में यूएपीए के तहत गिरफ्तार व्यक्तियों को जमानत देने के निर्णय ने जांच एजेंसियों के मनोबल को कम किया। इससे यह धारणा बनी कि न्यायपालिका आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपना रही है, जो जनता के बीच अविश्वास पैदा कर सकता है।

दूसरी ओर, न्यायपालिका का यह तर्क है कि वह केवल संविधान की रक्षा कर रही है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं हो सकता। कई बार जांच एजेंसियां जल्दबाजी में या राजनीतिक दबाव में बिना पर्याप्त सबूत के लोगों को हिरासत में ले लेती हैं। ऐसे में न्यायालय का हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए, हाल के कुछ मामलों में पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया, लेकिन न्यायालय ने पाया कि उनके खिलाफ ठोस सबूत नहीं थे। इन मामलों में न्यायपालिका ने न केवल व्यक्तियों की स्वतंत्रता बहाल की, बल्कि सरकार को यह संदेश भी दिया कि कानून का दुरुपयोग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

इस द्वंद्व का एक और आयाम है जनता का विश्वास। आतंकवादी घटनाओं के बाद जनता त्वरित न्याय की अपेक्षा करती है। यदि न्यायपालिका बार-बार संदिग्धों को जमानत देती है या जांच प्रक्रिया में देरी होती है, तो यह जनता के बीच यह धारणा बना सकता है कि न्याय व्यवस्था कमजोर है। दूसरी ओर, यदि न्यायपालिका बिना पूरी जांच के कठोर सजा दे, तो यह निर्दाेष लोगों के साथ अन्याय कर सकता है, जिससे समाज में असंतोष बढ़ेगा। दोनों ही स्थितियां लोकतंत्र के लिए हानिकारक हैं।

बहरहाल, इस समस्या का समाधान तभी संभव है, जब न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच बेहतर समन्वय हो। आतंकवाद से निपटने के लिए कानून बनाते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि वे संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन न करें। जांच एजंसियों को और अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाना होगा, ताकि उनके कार्यवाही पर सवाल न उठें। साथ ही, न्यायपालिका को यह समझना होगा कि राष्ट्रहित और आतंकवाद जैसे मामलों में उसका हस्तक्षेप संतुलित होना चाहिए। अति-हस्तक्षेप से न केवल जांच प्रक्रिया बाधित होती है, बल्कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा भी बन सकता है।

वैसे सिक्के का दूसरा पहलू भी है। न्यायपालिका का हस्तक्षेप कई मामलों में राष्ट्रहित की रक्षा करता है। जब सरकार या जांच एजेंसियां बिना ठोस सबूत के किसी व्यक्ति को आतंकवादी गतिविधियों के लिए हिरासत में लेती हैं, तो न्यायालय उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करता है। 1990 के दशक में टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां निवारण अधिनियम) के दुरुपयोग के कई मामले सामने आए, जहां निर्दाेष लोग लंबे समय तक जेल में रहे। सर्वाेच्च न्यायालय ने कई ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर न केवल निर्दाेषों को रिहा किया, बल्कि सरकार को कड़े कानूनों के दुरुपयोग पर चेतावनी भी दी। यह हस्तक्षेप लोकतंत्र की रक्षा करता है, क्योंकि बिना सबूत के हिरासत नागरिकों के विश्वास को कमजोर करती है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि  राष्ट्रहित और आतंकवादी घटनाओं से जुड़े मामलों में न्यायपालिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने हस्तक्षेप में कितना संतुलन बनाए रखती है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि न्यायपालिका को  राष्ट्रहित के किसी मामले में संतुलन, संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा, ताकि लोकतंत्र और देश की सुरक्षा दोनों बनी रहें।

संजय सक्सेना

संजय सक्सेना

लखनऊ skslko28@gmail.com 9454105568, 8299050585

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