कहानी – लाडली बहु
बिल्कुल सीधी, सरल , सौम्यता की मूरत, पति को परमेश्वर मानना अपना गौरव समझना , हर दिन भगवान की पूजा के बाद उनके सामने सर झुकाना, मानो भागी के दिनचर्या में शामिल था । याद नहीं, कभी उसने उनकी बातों का विरोध किया हो, एक आवाज पर जान भी हाजिर! इसीलिए तो , वो भी थी सबकी लाडली!
एक दिन भागी भागी दौड़ी पड़ोसी चाचा के घर पहुंची ही थी कि उसकी नजर पास पड़ी पत्रिका की छपी तस्वीर पर पड़ी । जाना -पहचाना चेहरा देख नजरे हटा भी न था कि — “मनोज साहू “-
यह वही तो नहीं जो दूसरे बेंच में बैठता था ! नीचे कांटेक्ट नंबर देख हाथों पर उतार लिया । घर के कामों से निवृत हो वह फौरन ही–
“हेलो , क्या मैं मनोज साहू से बात कर सकती हूं “!
“जी,मैं मनोज साहू, आप कौन ?”
“मैं भागीरथी,”
“पूरा नाम ?”
“भागीरथी शर्मा”
“माफ कीजिएगा मैंने आपको पहचाना नहीं”!”
“हमने एक साथ दसवीं तक पढ़ाई की थी , मैं पंखे के ठीक नीचे बैठती थी और लड़कों के साइड तुम सेकेंड बैंच में बैठते थे! भागी ने बताया।
“अरे वाह , याद आया मगर तुमने मुझे कैसे याद किया और मेरा नंबर कहा से!”
“मैंने एक अखबार में तुम्हारा नंबर देखा था, तो सोचा…..”
“अच्छा किया, बताओ क्या हाल है ?”मनोज ने पूछा।
“बस घर चूल्हा- चौका, तुम अपनी बताओ ?
“मैं तो बस जिसने बुलाया मनोज को पा लिया, वैसे मेरा एक ट्रस्ट भी है उसी में सेवा चल रहा है । थोड़ी बहुत कलम भी चला लेता हूं ।”
“अच्छा है , मुझे तो अपने लिए वक्त ही नहीं मिलता है ।”
“यह क्या बोल रही हो, घर पर कौन-कौन है ?”
“घर के सदस्यों के साथ साथ उसने पूरी दिनचर्या की भी जानकारी दें दी। फिर दोनों घंटो बातें करते रहे , लेकिन भागी अपने लिए भी वक्त निकालना बहुत जरूरी है । किसी को जिंदगी दोबारा नहीं मिलेगी। चौबीस घंटे में थोड़ी देर तो अपने लिए जियो । और जहां तक मुझे याद है तुम तो स्कूल के दिनों में डायरी भी लिखती थी।”
“हां तुम्हें याद है ,”
“हां यार , तुम्हारी डायरी दिखा कर टीचर्स हमें डंडे देते थे।”
“हां यार, मगर अब तो सब कुछ छूट ही गया ।”
“छूट गया या छोड़ दिया तुमने, किसी ने मना तो नहीं किया! “
भागी को यह बात दिल को कचोट गई। वह वक्त की दुहाई देती रही,
मेरी बात मानो, आज से फिर डायरी लिखना शुरू करो। देखना , वक्त अपने आप ही निकल जाएगा । दोनो घंटो इधर-उधर की बातें करते रहे । मनोज की बातों का भागी पर बहुत गहरा असर पड़ा। अब वह अक्सर अपने कामों से निवृत होकर कागज कलम लेकर बैठ जाती। पड़ोसी चाचा के यहां से बासी पत्रिकाएं भी ले आती।
अब वह दो पंक्तियां भी लिखती तो मनोज को भेज देती । धीरे-धीरे मनोज भागी के लिखे पंक्तियों को सुधार कर छोटे-छोटे अखबारों पत्रिकाओं में भेज देता।
पहली बार अपनी रचना को किसी पत्रिका में देख भागी की खुशियां का ठिकाना न रहता ।अब वह अक्सर बहुत खुश रहती।
धीरे-धीरे उसकी रचनाएं नामी गिरामी अखबारों में भी छपने लगीं , यह सब कुछ देख रंजन कभी-कभी व्यंग्य कर कह भी देता, क्यों बेकार की चीजों में वक्त गँवा रही हो। कभी घर के कामों को अपना समझ कर भी किया करो। लेकिन मनोज उसकी ढाल बनकर सदा खड़ा रहा। वह उसे प्रोत्साहित करता जिससे भागी दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। उसका साहित्य जगत में अच्छा खासा नाम हो गया। वहीं पति रंजन और भागी के बीच दूरियां बढ़ता ही जा रही थी। दोनों एक छत के नीचे रहकर भी अनजाने से रहते, लेकिन मनोज के साहस से वह हर दिन ऊंचाइयों को छूती गई ।यहां तक कि वक्त के साथ-साथ पूरे शहर में उसका बोलबाला होता गया। अब जब भी वक्त मिलता वह कागज कलम पर ही अपना समय बिताती। लेकिन रंजन को यह सब बिल्कुल पसंद ना आता।
अचानक एक दिन वह सीढीयो से उलट कर गिर पड़ी । डॉक्टरी जांच से पता चला कि उसके हाथों में प्लास्टर की जरूरत पड़ेगी जिससे यह सुनते ही वह बिल्कुल हताश हो गई। कागज कलम लेना भी बेकार सा महसूस होता। यह सब कुछ देख रंजन के मुख पर दुख तो जरूर होता लेकिन मन ही मन …
धीरे-धीरे दोनों के रिश्ता में जमीन आसमान का अंतर होता गया। भागी पति के साथ बदलते रिश्तो को भी बताती ।
भागी की ये बातें वह खुद को रोक न पाया और बातों ही बातों में बोला — भागी एक बात बोलूं , जो तुम समझ रही हो , वैसा नहीं है ।तुम्हारे साथ रिश्ते बदलने की वजह प्यार नहीं है, बल्कि तुम्हारी लाचारी है । इसलिए तुम अभी सब की प्यारी हो गई हो । बाकी टूटे हुए लोगों के साथ तो दो पल हमदर्दी का कोई दिखा दे। हां , लेकिन वही उड़ते पंछी को लोग बंदूक चलाने से भी कभी नहीं चूकते । भागी उसकी बातों को गौर से सुनती रही। वह मन ही मन सब कुछ समझती ।
वक्त के साथ उसकी तबीयत में थोड़ा सुधार हुआ। एक दिन अचानक गुमसुम बैठे देख पति रंजन ने व्यंग्य कर कहा– ‘इतनी उदास क्यों बैठी हो अब तो तुम्हारी तबीयत भी सुधर रही है!’
“हां, तबीयत तो जरूर सुधर रही है लेकिन मेरा अस्तित्व जाने कहां खो गया है । मेरी कलम दो शब्द नहीं लिख पा रहे हैं, भला मैं कैसे खुश रहूं !’ जवाब सुन रंजन उसे दो टक निहारता ही रहा…..
— डोली शाह