लुटेरों की मिसाइल ओर डकैतों का परमाणु बम
इस्राइल-ईरान युद्ध के खात्मे का इंतजार दुनिया को था कि विश्व का दरोगा अमेरिका इसमें कूद पड़ा। दुनिया पहले ही रूस-यूक्रेन युद्ध से परेशान थी, इस बीच भारत-पाकिस्तान के बीच भी कुछ दिनों का युद्ध हो चुका था। अमेरिका का कहना है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम दुनिया के लिए खतरा है। ईरान पर बम बरसाने से पहले अमेरिका ने धमकी भी दी थी कि वह फौरन इसे रोके। यह बात बिल्कुल ठीक है कि परमाणु अस्त्र पूरी मानवता के लिए आफत की तरह हैं। जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर जो बम गिराए गए थे, उनकी विनाशक क्षमता आज के परमाणु हथियारों के मुकाबले बहुत कम थी। तब भी जापान ने इसे दशकों तक भुगता। आज तो ऐसे हथियार हैं, जो पल भर में दुनिया को खत्म कर सकते हैं। ऐसे में हे अमेरिकियों, जितने मारक हथियारों के जखीरे आपके पास हैं, दूसरे देशों को उपदेश देने से पहले, उन्हें नष्ट क्यों नहीं कर देते। क्या वे दुनिया के लिए खतरा नहीं हैं….या कि उसी तर्क पर चलते हो कि जबरा मारे और रोने भी न दे।
जब अमेरिका के खिलाफ ये बातें की जा रही हैं, तब इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि ईरान का पक्ष लिया जा रहा है। मानव अधिकारों के मामले में ईरान की स्थिति कोई अच्छी नहीं है। दशकों पहले जब ईरान के इस्लामिक आंदोलन ने शाह रजा पहलवी को खदेड़ दिया था और पेरिस में निर्वासित जीवन बिताने वाले खोमेनी को हाथो हाथ लिया था, तब की याद आती है। खोमेनी के पक्ष में वहां जो युवा शाह के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, उनमें से बहुत से खुद को इस्लामिक मार्क्ससिस्ट कहते थे। जब खोमेनी पेरिस से लौटे, तो उनकी कार को कंधे पर उठा लिया गया था। बाद में सबसे पहले खोमेनी ने इन्हीं इस्लामिक मार्क्ससिस्ट कहने वाले लोगों को सरेआम मौत के घाट उतरवाया था। शाह ने स्त्रियों को घर की चारदीवारी से निकाला था, उन्हें आत्मनिर्भरता की राह दिखाई थी, खोमेनी ने उन्हें वापस सदियों पहले की स्थिति में धकेल दिया।
अब वहां स्त्रियां अपने आप कुछ नहीं कर सकतीं। न बैंक अकाउंट खोल सकती हैं, न बिना माता-पिता की लिखित अनुमति के पढ़ सकती हैं, न नौकरी कर सकती हैं। न शादी ही। सिर से हिजाब जरा-सा खिसका नहीं कि आफत आई नहीं। अफगानिस्तान की तरह ही वहां भी स्त्रियों को मामूली मानव अधिकार नहीं हैं। इसे धर्म और हमारी संस्कृति कहकर रफा-दफा कर दिया जाता है। लेकिन अमेरिका जिसका ट्रेक रिकॉर्ड दुनिया भर के तानाशाहों को पालना-पोसना रहा है, वह मनमाने तरीके से मानव अधिकारों की व्याख्या करता है। चाहे डेमोक्रेट्स हों या रिपब्लिकंस, उनकी नजर सिर्फ अपने यहां पूंजीपतियों के हितों को देखने की होती है। मानव अधिकार आदि की बातें तो दुनिया को दिखाने के लिए होती हैं।
इस सिलसिले में जान पर्किन्स की मशहूर पुस्तक ‘कन्फेशन्स ऑफ़ ऐन इकोनॉमिक हिटमैन’ पढ़ी जा सकती है। जान खुद इकोनामिक हिटमैन रहे हैं यानी कि दूसरे देशों में अमेरिकी पूंजीपतियों के हितों को हर हाल में संरक्षित करने वाले।
फिर दूसरा देश अपने यहां क्या करना चाहता है, इसमें दखल देने वाले आप कौन हैं। अमेरिका अपने यहां कौन से हथियार विकसित कर रहा है, यदि किसी दूसरे देश को यह बात पसंद न आए तो क्या वह अमेरिका पर उसी तरह हमला कर दे, जैसे अमेरिका करता है। कल अगर भारत की सत्ता आपकी बात न माने, तो आप उस पर भी चढ़ दौड़ेंगे। ये बात अलग है कि कभी वियतनाम से पिटेंगे, तो कभी अफगानिस्तान से सिर पर पांव रखकर भागेंगे।
आपको नब्बे का दशक याद होगा। अमेरिका, ईराक पर टूट पड़ा था। बहाना बनाया था कि ईराक के पास ऐसे रासायनिक हथियार हैं, जो विश्व को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। हालांकि यह कभी प्रमाणित नहीं हो सका। लेकिन सद्दाम हुसैन को फांसी दे दी गई। उनका वह चित्र छपा था, जिसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। उनका सिर एक ओर पड़ा था और धड़ एक ओर।
नब्बे के दशक में ही भारत में टेलीविजन घर-घर पहुंच चुका था। ईराक, अमेरिका की लड़ाई का पहली बार लाइव प्रसारण लोगों ने घर बैठकर देखा था और रोमांचित हुए थे। आज इक्कीसवीं सदी के पचीसवें वर्ष में इस्राइल, अमेरिका, ईरान युद्ध की तस्वीरें, लाइव प्रसारण भी खूब दिख रहे हैं।
बीबीसी और न्यूयार्क टाइम्स ने बताया कि इस समय युद्ध के फेक वीडियोज और रील्स की बाढ़ आ गई है। इन्हें एआई द्वारा तैयार किया गया है। इन रील्स और वीडियोज को देखने वालों और फालोअर्स की संख्या करोड़ों में पहुंच रही है। इस फेक नैरेटिव से लड़ना वाकई मुश्किल काम है। इसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के समय भी देखा गया था। किस तरह से पश्चिमी मीडिया ने भारत के खिलाफ फेक नैरेटिव तैयार किया था। लिखने वाले पाकिस्तानी और छापने वाले यही न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, टेलीग्राफ, बीबीसी आदि ही थे। लेकिन अब जब अमेरिका, इस्राइल के खिलाफ फेक वीडियोज और रील्स भारी पैमाने पर आने लगे, तो रोने लगे। पश्चिमी मीडिया ऐसा ही दुरंगा है। अपने मालिकों को हर हाल में बचाता है। उनके खिलाफ शायद ही कभी मानव अधिकार हनन का रोना रोया जाता है। इसमें पश्चिमी न्यूज एजेंसीज भी बढ़-चढ़कर भूमिका निभाती हैं। तरह-तरह के गढ़े झूठ को सच की तरह परोसा जाता है।
अपने यहां भी अधिकांश चैनल्स जिस तरह का युद्धोन्माद भड़का रहे हैं, वह काफी निंदनीय और चिंतित करने वाला है। ज्यादा से ज्यादा टीआरपी और उसके बदले विज्ञापनों की बढ़त के कारण हर समय ऐसे–ऐसे हैडिंग्स लगाए जा रहे हैं- इस्राइल ईरान क्रुद्ध, अब होगा विश्वयुद्ध। या कि नहीं रुकेगा परमाणु युद्ध। आश्चर्य यह होता है कि यदि परमाणु युद्ध हो जाए, तो क्या वे लोग बचे रहेंगे, जो इस तरह की भविष्यवाणियां रात-दिन करके माल बटोर रहे हैं। आपने ईरान की उस टीवी पत्रकार की हालत तो देखी ही होगी, जो स्टूडियो पर इस्राइली हमले के बाद लाइव प्रसारण छोड़कर भागी।
ईरान के खामनेई अक्सर कहते रहे हैं कि वे इस्राइल का नामोनिशान मिटा देंगे। क्या वाकई ऐसा हो सकता है। अगर ऐसा हो सकता, तो इस तीन साल से अधिक के वक्त में रूस ने यूक्रेन का नामोनिशान मिटा दिया होता। इस्राइल के खिलाफ तो इतने अधिक देश हैं कि वह कब का खत्म हो गया होता। लेकिन इन दिनों न कोई युद्ध जीतता है, न हारता है। दोनों ही पक्षों को नुकसान उठाना पड़ता है। हां तीसरी पार्टियां अगर बीच में आ जाएं, तो यह नुकसान और बढ़ जाता है। जो रील्स और वीडियोज देखे हैं, उनमें ईरान की विजय पर माशा अल्लाह और देख लो इस्राइल की हालत आदि बड़े पैमाने पर हैं। इसी तरह के वीडियोज इस्राइल से भी आ रहे हैं। क्या सही है, क्या गलत, इसका पता लगाना भी मुश्किल है। अच्छा तरीका तो यही है कि जहां भी लड़ाई हो रही है, वह रुके। इस दुनिया में पहले ही आफतें क्या कम हैं। आम लोगों की किसी भी लड़ाई में शायद ही कोई भूमिका होती है, लेकिन बड़ी संख्या में मारे वे ही जाते हैंA
— विजय गर्ग