जायें तो जायें कहाँ?
जायें तो जायें कहाँ, समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे दिल की जुबाँ
कांग्रेस को मिली है सजा, सपने दिखा आयी भाजपा, कुछ दिन तो ढोल बजा.
जायें तो जायें कहाँ,
कहते थे, सुनते थे, अच्छे दिन, अब आएंगे, अब कहते, वो था जुमला
जायें तो जायें कहाँ,
झाड़ू पकड़ी, फावड़ा उठा, भाषण सुन ताली भी बजा, ‘ बैंक खाता’ भी खूब खुला
जायें तो जायें कहाँ,
लाख पंद्रह नही आएंगे, संचित धन, भी जायेंगे, ‘कर’ सेवा का भी है बढ़ा.
जायें तो जायें कहाँ,
भाजपा से मोह घटा, आम आदमी खोजे रास्ता, सौदागर, हर कोई हैं यहाँ
जाए तो जाए कहाँ,
टोपी पहन आया केजरी, मफलर भी बाँधा केजरी, खांसी से रहा वो परेशां
जायें तो जायें कहाँ,
आम आदमी समझा नहीं, धारा में बहा ‘मत’ भी, अब जाकर भेद खुला
जायें तो जायें कहाँ,
अपन करम, अपना धरम, करने में, नहीं हो शरम, कहिये सभी सच्ची जुबाँ
जायें तो जायें कहाँ !
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आदरणीय श्री विजय सिंघल साहब, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार!
आदरणीय गुरमेल सिंह जी, आपसे पूरी तरह सहमत!
हा…हा…हा… अच्छी कविता !
हा हा , बढ़िया चित्रण किया सिआसत का . जब से होश संभाला बस हाए मैन्ह्घाई हाए मह्न्घाई ही देखता आया हूँ . भाई दुःख की बात तो यह है कि खर्चे बड रहे हैं और साथ ही living standard भी बड़ा है जैसे मोबाइल नए नए टीवी वाशिंग मैशीन internet अगर कार नहीं तो मोटर बाइक माकिक्रोवेव और किया किया गिनती करूँ , अगर हम बैक टू बेसिक पर आ जाएँ तो सुखी हो सकते हैं , जैसे सिम्पल दाल रोटी no washing मशीन सिम्पल टीवी no कार no मोटर बाइक और भी खर्चे कम करें तो कुछ आसानी हो सकती है लेकिन दुःख की बात यह है कि समय के साथ साथ चलने से हम सब को तकलीफें उठानी ही पड़ेंगी .