सत्यार्थ प्रकाश का बार-बार अध्ययन जीवन पथ का मार्गदर्शक एवं हितकारी
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश लिख कर सम्पूर्ण मानव जाति पर एक महान उपकार किया है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से ही देश को स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, लाला लाजपत राय, महात्मा हंसराज, श्यामजी कृष्ण वर्म्मा, महादेव गोविन्द रानाडे, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह आदि समाज सुधारक व देश भक्त प्रदान मिले हैं। ऐसे ही कोटि कोटि लोग विगत 140 वर्षों में सत्यार्थ प्रकाश से प्रभावित होकर देश व जाति के लिए लाभकारी सिद्ध हुए हैं। यहां हम पं. गुरूदत्त विद्यार्थी जी के जीवन का सत्यार्थ प्रकाश से जुड़ा एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं। पं. गुरूदत्त विद्यार्थी लाहौर में संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी पढ़ाते थे और कक्षा के विद्यार्थियों से कहते थे कि प्रातः व सन्ध्या के पश्चात् एक घण्टा तक सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ा करो। वे कहते थे कि मैंने ग्यारह बार सत्यार्थप्रकाश को ध्यान से पढ़ा है और जब–जब इस ग्रन्थ को उन्होंने पढ़ा, उन्हें इसके नये–नये अर्थ सूझे। वे कहा करते थे कि यह खेद का बात है कि सत्यार्थप्रकाश को लोग कई बार नहीं पढ़ते। एक बार प्राणायाम की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि प्राणयाम असाध्य रोगों को भी दूर कर सकता है। उन्होंने बताया था कि कभी-कभी किसी स्थूलकाय व्यक्ति को यह प्राणयाम कुछ दुर्बल बना देता है परन्तु थोड़े समय के पश्चात् वह व्यक्ति सशक्त व स्वस्थ हो जाता है। उनका यह कथन था कि संसार में सबसे उपयोगी वस्तु निःशुल्क मिला करती है। अतः भयंकर रोगों की सर्वोत्तम औषधि वायु है और यह वायु प्राणायाम द्वारा औषधि का काम दे सकती है।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का निर्माण लोगों को वेदों व सत्य धर्म का परिचय देने के लिए प्रथम सन् 1874-75 में किया था। इस ग्रन्थ का संशोधित व परिवर्धित रूप उनकी सन् 1883 में देहावसान के बाद प्रकाशित हुआ जिसका निरन्तर प्रकाशन व प्रचार हो रहा है। सत्यार्थ प्रकाश को वैदिक मान्यताओं का विषयानुसार वर्णन ग्रन्थ कह सकते हैं जो किएक ग्रन्थ मात्र न होकर सत्य वैदिक मान्यताओं का प्रमुख धर्म ग्रन्थ है। इसमें तीन शाश्वत सत्ताओं ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित मनुष्य के हर आयु के कर्तव्यों व सृष्टि उत्पत्ति से लेकर प्रलयावस्था तक तथा बन्धन-मोक्ष आदि अनेक विषयों का वर्णन है। हमने इस ग्रन्थ को पढ़ा है और इससे उत्पन्न ज्ञान व विवेक के आधार पर हम यह अनुभव करते हैं कि मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाने व संसार का यथार्थ परिचय कराने वाला इससे अधिक सरल व उपयोगी ग्रन्थ संसार में अन्य कोई नहीं है। यह अनुभव केवल हमारा ही नहीं है अपितु इसका अध्ययन करने वाले प्रायः सभी व अधिकांश लोगों का है जिसमें आर्यजगत के वरिष्ठ विद्वान पं. गुरूदत्त विद्यार्थी (1864-1890) भी सम्मिलित हैं। उनके जीवन का एक प्रेरणादायक प्रसंग ही लेख की भूमिका बना है। हम यहां यह भी कहना चाहिते हैं कि सत्यार्थ प्रकाश में जो ज्ञानराशि है, उसका देश व जीवन के विभिन्न पहलुओं पर जो प्रभाव हुआ है उसका मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। यदि देखें तो सत्यार्थ प्रकाश ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रान्ति कर देश को उन्नति के पथ पर अग्रसर किया है।
इसी से मिलता-जुलता एक संस्मरण उनके अभिन्न मित्र लाला जीवनदास ने अन्यत्र भी उल्लेखित किया है जहां वह लिखते हैं कि ‘‘जितना अधिक वे स्वामी दयानन्द की पुस्तकों का अध्ययन करते थे, महर्षि के प्रति उनकी भक्ति उतनी ही प्रगाढ़ और वैदिक धर्म में उनकी श्रद्धा उतनी ही सुदृढ़ होती जाती थी। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश को कम से कम 18 बार पढ़ा था। वे कहते थे कि जितनी बार मैं इसे पढ़ता हूं, मुझे मन और आत्मा के लिए कुछ न कुछ नवीन भोजन मिलता है। उनका कथन है कि यह पुस्तक गूढ़ सच्चाइयों से भरी पड़ी है।“
हमें पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के मात्र 26 वर्ष से भी कुछ कम दिनों के अति व्यस्त जीवन में 18 बार सत्यार्थप्रकाश को पढ़ना किसी आश्चर्य से कम दृष्टिगोचर नहीं होता। जिस व्यक्ति ने एम.ए. विज्ञान में अविभाजित पंजाब जिसमें वर्तमान का पूरा पाकिस्तान, भारत के पंजाब, हिमाचल, हरयाणा व दिल्ली के भी कुछ भाग शामिल थे, में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त किया हो व अपने अध्ययन काल में ही अनेकानेक इतर विषयों का अध्ययन करता रहा हो, प्रवचन देता हो, पत्रों का सम्पादन करता हो, आर्यसमाज के सत्संगों व उत्सवों में प्रवचन करता हो व डी.ए.वी. आन्दोलन के प्रचार के लिए देश भर में भ्रमण व अपीले करता रहा हो, उसका 26 वर्षों के अल्प जीवन काल में 18 बार सत्यार्थप्रकाश पढ़ना निःसन्देह आश्चर्यजनक है। सत्यार्थ प्रकाश का महत्व इसलिये भी है कि इसमें ईश्वर व धर्म सम्बन्धी अनेक यथार्थ तथ्यों का प्रतिपादन है जो समकालीन व इससे पूर्व के साहित्य में उपलब्ध नहीं होते। इसको इस रूप में भी समझ सकते हैं कि मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है, यह यथार्थ रूप में सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर ही हृदयंगम होता है। सच्ची अंहिसा की शिक्षा इस ग्रन्थ को पढ़कर मिलती है। जीवन के उद्देश्य मोक्ष के अतिरिक्त मोक्ष प्राप्ति के साधनों को भी तर्क-वितर्क के माध्यम से समझाया गया है जिसे सच्चे मन से अध्ययन करने वाला स्वीकार करता है। यह पुस्तक ऐसी है कि जिसके खण्डन में अभी तक कोई ग्रन्थ तैयार नहीं हुआ जबकि अन्य ग्रन्थों की मान्यताओं पर उसी मत के अनुयायियों में मतभेद पाये जाते हैं और कईयों में तो तर्क की इजाजत ही नहीं है। अतः सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से इसके अध्येता को जो लाभ प्राप्त होता है वह अन्य मत-मतान्तरों के अनुयायियों को प्राप्त नहीं होता।
पं. गुरूदत्त विद्यार्थी जी की सत्यार्थप्रकाश के प्रति जो टिप्पणी की गई है वह इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि वह एक असाधारण व्यक्ति थे। हमारे देश में एक प्रकार से एक अन्धपरम्परा चलती रही है कि विदेशी विद्वान कुछ भी कहें, उसे प्रमाणित स्वीकार किया जाता है और अपने देश के चिन्तकों व विचारकों के सत्य विचारों को भी विदेशी विद्वानों के भ्रमोत्पादक दृष्टिकोण से ही देखा जाता है। गुरूदत्त जी ने इस परम्परा को स्वीकार न कर विदेशी विद्वानों के चिन्तन, मान्यताओं व निष्कर्षों पर आपत्तियां ही नहीं की अपितु उनके खण्डन में लेख व पुस्तकें लिखी जिससे वह निरूत्तर हो गये। आज भी उनके उपलब्ध साहित्य को पढ़ने पर उनकी विलक्षण बुद्धि से प्रस्फुटित विचारों को पढ़कर लाभ उठाया जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन में वेद और वैदिक साहित्य के प्रचार में जो योगदान दिया है वह चिरस्मरणीय है। उन्होंने वैदिक साहित्य को समृद्ध किया। विदेशी विद्वानों का मिथ्या दम्भ चकनाचूर किया। वैदिक विचारों को अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत कर अंग्रेजी शिक्षित वर्ग में सबसे पहले प्रचारित व प्रकाशित किया। उन्होंने जीवन का एक-एक क्षण वेदों के प्रचार व प्रसार में व्यतीत किया। हम अनुमान करते हैं कि यदि उन्हें 60-70 वर्ष का जीवन मिला होता तो वह इतना कार्य करते कि जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन में महर्षि दयानन्द का अनुकरण कर उनके जैसा बनने का प्रयास किया था। वह अधिक से अधिक जितना कर सकते थे उन्होंने किया। उन्होंने 26 वर्ष की आयु में जितना कार्य किया है, उनसे पूर्व शायद ही किसी वैदिक विद्वान व धर्म प्रचारक ने सारी दुनिया में किया होगा। हमारा यह भी अनुमान है कि यदि उन्हें 70 वर्ष का जीवन मिला होता तो वह 100 से अधिक बार सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करते और इससे उनके व्यक्तित्व में जो श्रेष्ठता व महानता उत्पन्न होती, उसका हम केवल अनुमान ही कर सकते हैं। उनके प्रेरक जीवन का अध्ययन युवा पीढ़ी के लिए आदर्श है। सभी को उनका जीवन चरित पढ़कर प्रेरणा लेनी चाहिये।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख !
लेख पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
बहुत विचार पूर्ण ,सुन्दर ,सार्थक आलेख !
हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी , लेख बहुत अच्छा लगा .मेरा विचार है कि सतियार्थ परकाश को वोह ही पड़ेगा जिस को धर्म में रूचि है , where there is will there is a way . इस जिंदगी को समझना बहुत मुश्किल है . बहुत लोग शराब पीते मैं ने देखे हैं जो इन्तहा तक पौहंच चुक्के थे लेकिन जब छोड़ी तो बस एक दिन में ही बोतल तोड़ दी और धार्मिक हो गए . एक ऐसे शख्स को भी जानता हूँ जो हम को धर्म की बातें समझाया करता था लेकिन एक दिन उन से मिले तो वोह शराब में धुत थे . यह ग्रस्थ जीवन ऐसा है कि इस में किसी की जिंदगी में दुःख ही दुःख आ जाते हैं और कुछ लोग सुख में ही जीवन बतीत कर जाते हैं . अक्सर सुना है कि दुःख में इंसान धार्मिक हो जाता है लेकिन धन्ने भगत जैसा सोचता हूँ कि भूखे से भगती नहीं हो सकती . यह मेरे अपने विचार हैं कि सिर्फ धार्मिक ग्रन्थ पड़ने से कुछ हासिल नहीं जितनी देर उस को सोच समझ कर अमल ना किया जाए . जिंदगी में एक ही नेक इंसान के संपर्क में रहा हूँ जिस को लोग गियानी जी कहते थे , अब वोह दुनीआं में नहीं हैं . उन कि बातें मैं धियान से सुना करता था , उन को सिखों का गुरु ग्रन्थ साहिब सारा जुबानी याद था और उन के मीनिग भी वोह जानते थे . जो धर्म कहता है उन्होंने कर के दिखाया . वोह समय जब वोह लाखों पाऊंड कमा सकते थे उन्होंने लोगों की इतनी मदद की कि अब तक उनको याद करते हैं . अजीब बात यह थी कि वोह गुरदुआरे नहीं जाते थे , वोह कहते थे यह लोग धर्म नहीं कर्मकांड करने जाते हैं . जो बातें आप अपने लेखों में लिखते हैं मैंने पहले कभी नहीं सुनी या पडी थीं , इस लिए मैं आप के सारे लेख पड़ता हूँ .
सद्कर्मो में प्रवृत्ति रूचि से भी होती है और हमारे प्रारब्ध के अनुसार ईश्वर की कृपा होने पर भी होती है। अच्छे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना अच्छा है और उस पर आचरण करने से इच्छित उद्देश्य पूरे होते है. यदि शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान के अनुसार मन, वचन व कर्मों से आचरण नहीं होगा तो कोई लाभ नहीं हो सकता। पुरुषार्थ मुख्य है और इच्छा गौण। मिस्री मिस्री कहने से मुह मीठा नहीं होता लेकिन यदि पुरुषार्थ करें तो देर सबेर अभीष्ट पूरा हो सकता है। मुझे लगता है कि ईश्वर मनुष्य को दुःख देता ही इस लिए है कि वह जीवन के यथार्थ को जान सके। आपने जिन ज्ञानी जी की बात लिखी है वह सच्चे अर्थों में धार्मिक मनुष्य थे। ऐसे लोगो का नाम सुनकर ही श्रद्धा से सिर अपने आप झुक जाता है। धर्म के पालन के लिए मंदिर, मस्जिद व गुरूद्वारे जाने की आवश्यकता नहीं है। हमारा मन या ह्रदय ही ईश्वर का मंदिर है जहाँ आत्मा वा परमात्मा दोनों निवास करते हैं। हमारे योगी शांत स्थान पर्वतों की कंदराओं या गुफाओं जैसे शांत स्थानो में बैठकर अपने ह्रदय में ही ईश्वर का ध्यान करते थे और ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते थे। ईश्वर की उपासना तथा सद्कर्म वा अग्निहोत्र दवारा वायु की शुद्धि करना ही धर्म है। संसार के सभी लोग ईश्वर की संताने है और सभी आपस में भाई वा बहिन हैं। आपके विचारों से बहुत आत्मिक खुराक मिलती है, इसके लिए आपका आभारी हूँ। हार्दिक धन्यवाद।