यूँ सताया न करो
यूं रोज़ रोज़ मुझे न
सताया करो तुम
रह रह कर
आंसू न बहाया करो तुम
माना के हम
दुनियावी रिश्तों के दायरे में नहीं आते
पर खुद की नज़रों से तो
हमें न गिराया करो तुम
जब भी देखता हूं तुमको
अपनी नज़रों के सामने
गन्धर्व विवाह मान कर
पत्नी मान लेता हूं तुमको
फिर यूँ बार बार
किसी की बातों में आकर
मुझको मेरी ही पहचान
न बताया करो तुम
जब तक जियूँगा
तुम्हारे लिए जिऊंगा
तुम्हारे जाने से पहले
मौत का ज़हर पियूँगा
इसलिए
जब तक जिन्दा हूँ
जी भर के कर लो प्यार मुझको
क्या पता किस दिन
बंद हो जाएँ ये ऑंखें
यूँ जीते जी तो मुझको
न जलाया करो तुम
न जलाया करो तुम
— महेश कुमार माटा
अच्छी भाव वहन करती रचना महेश कुमार जी, वाह, यूँ ही न जलाया करों तुम……
अच्छी कविता !