टेसू
ऐसे लगते मानों
खेल रहे हो पहाड़ों से होली ।
सुबह का सूरज
गोरी के गाल
जेसे बता रहे हो
खेली है हमने भी होली
संग टेसू के ।
प्रकृति के रंगों की छटा
जो मोसम से अपने आप
आ जाती है धरती पर
फीके हो जाते है हमारे
निर्मित कृत्रिम रंग ।
डर लगने लगता है
कोई काट न ले वृक्षो को
ढंक न ले प्रदूषण सूरज को ।
उपाय ऐसा सोंचे
प्रकृति के संग हम
खेल सके होली ।
संजय वर्मा “दृष्टि “
बहुत ही बढियां रचना मान्यवर संजय जी, प्रदुषण अब सूरज से बड़ा होने के लिए गतिमान हो गया है जिसको हम खूब प्रोत्साहित कर रहें है काश लोग इस समस्या को समस्या की तरह लेते तो अमावस की रात का अहसास न होता……
बहुत अच्छे भाव !