धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

एक ऐसा विश्वविद्यालय बने जहां आदर्श मानव का निर्माण हो: डा. महावीर

ओ३म्

श्री मद्दयानन्द ज्योतिर्मठ आर्ष गुरुकुल, पौन्धा-देहरादून आर्यजगत की प्रसिद्ध संस्था है जहां प्राचीन वैदिक आर्ष पद्धति से संस्कृत व्याकरण सहित वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन कराया जाता है। इस संस्था  के संस्थापक आर्यजगत के प्रसिद्ध संन्यासी एवं विद्वान स्वामी प्रणवानन्द सरस्वतीuniversity हैं जो सम्प्रति देश भर में 7 गुरूकुलों की स्थापना कर 8 गुरूकुलों का सफलतापूर्वक संचालन व कर रहे हैं। देहरादून गुरूकुल के प्रमुख आचार्य डा. धनन्जय आर्य हैं जिन्होंने सन् 2000 में इस गुरूकुल की स्थापना से लगभग 15 वर्षों में इसे ऊंचाईयों पर पहुंचाया हैं। वर्ष 2015 के गुरूकुल के उत्सव में आर्यजगत के चोटी के विद्वान यथा डा. महावीर अग्रवाल, पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय, डा. रघुवीर वेदालंकार, डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री, डा. सोमदेव शास्त्री, डा. विक्रम विवेकी सहित देश भर से प्रसिद्ध भजनोपदेशकों ने भी भाग लिया। प्रमुख भजनोपदेशक थे श्री ओम्प्रकाश वम्र्मा यमुनानगर, श्री सतपाल पथिक अमृतसर, श्री सत्यपाल सरल, श्री उदयवीर आर्य मथुरा, श्री कुलदीप आर्य, श्री मामचन्द जी आदि। देशभर से आर्यजनता व गुरूकुल में पढ़ने वाले ब्रह्मचारियों के अभिभावकों सहित स्थानीय आर्य जनता ने भी पूरे उत्साह व उमंग से आयोजन में भाग लिया। कार्यक्रम अत्यन्त सफल रहा। आज के इस लेख में हम गुरूकुल के उत्सव में उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डा. महावीर अग्रवाल जी द्वारा दिये गये व्याख्यान को प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें उन्होंने भारत में एक ऐसे नये विश्वविद्यालय की स्थापना की आवश्यकता पर विद्वानों एवं श्रोताओं का ध्यान दिलाया है जहां वेदों के ज्ञान सहित प्रमुख रूप से चरित्र नैतिकता की शिक्षा देकर आदर्श मानव का निर्माण किया जाये और यह ऐसा विश्वविद्यालय हो जो संसार के सभी विश्वविद्यालयों में अनोखा एवं विश्ववन्दनीय हो।

गुरुकुल पौन्धा के समापन दिवस समारोह में आर्यजगत के विख्यात विद्वान और महर्षि दयानन्द के भक्त प्रो. महावीर अग्रवाल, कुलपति, उत्तराखण्ड संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने कहा कि मैं यहां व्याख्यान वेदी पर बैठा हुआ यज्ञ वेदी को देख रहा था तथा आप सबमें उमड़ती श्रद्धा को निहार रहा था। विद्वानों की व्याख्याओं को सुन रहा था और ऐसे अद्भुद वातावरण को देख कर, क्योंकि विश्वविद्यालय की परम्परा से जुड़ा हुआ हूं, एक विचार मेरे मन में आया। आपने पढ़ा होगा कि विश्व के प्रमुख 100 विश्वविद्यालयों या 200 विश्वविद्यालयों में आज भारत का एक भी विश्वविद्यालय उन विदेशी विश्वविद्यालयों में से किसी एक के समान स्तर वाला नहीं है। वर्तमान में भारत में लगभग 750 विश्वविद्यालय काम कर रहे हैं, लेकिन जब सारे विश्व के विश्वविद्यालयों की गणना की जाती है और उनमें 100 या 200 विश्वविद्यालयों का चयन किया जाता है तो उसमें भारत का कोई विश्वविद्यालय चाहे वह दिल्ली का जेएनयू हो, दिल्ली विश्वविद्यालय हो, काशी का बीएचयू हो या मद्रस, कलकत्ता या मुम्बई के विश्वविद्यालय हों, किसी विश्वविद्यालय की गणना विश्व के उन 200 अग्रणीय विश्वविद्यालयों में नहीं होती। इसका क्या कारण है? सारे संसार को चरित्र की, ज्ञान की, विज्ञान की, शिक्षा देने वाला, सारे संसार का मार्गदर्शन करने वाला तथा सारी दुनिया का नेतृत्व करने वाला भारत आज ज्ञान के क्षेत्र में इतना पिछड़ा हुआ है।

मेरे मन में आया कि यज्ञ भगवान से मैं प्रार्थना करूं कि भारत दुनियां को धन व वैभव दे सके या न दे सके, भारत दुनिया को युद्ध करने का सामथ्र्य प्रदान कर सके या न कर सके तथा भारत दुनिया को भौतिकता के साधन प्राप्त करने का मार्ग दिखा सके या न दिखा सके, लेकिन भारत वर्ष के पास एक ऐसी शक्ति है, एक ऐसी परम्परा है, एक ऐसा इतिहास है व एक ऐसा अतीत है, जिससे यह दुनिया को जीवन जीने की कला सीखा सकता है। यह दुनिया को मानवता का सन्देश दे सकता है। यहां एक ऐसा आदर्श विश्वविद्यालय स्थापित किया जाये। मेरी इस कल्पना को कोई साकार रूप प्रदान कर सकता है तो आज इस धराधाम पर, इस यज्ञशाला में तथा इस पावन परिसर में बैठा हुआ एक महान तपस्वी संन्यासी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती ही कर सकता है।

यहां एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना हो जिसमें मानवता का पाठ पढ़ाया जाये, जिसमें इंसान बनाये जायें, जहां देश भक्ति हो, जहां इतिहास हो, जहां परम्परायें हों, जहां आध्यात्मिकता हो, एक ऐसा स्थान हो जहां दुनिया को योग की संजीवनी प्रदान की जाये, ऐसा संकल्प लेकर बड़े-2 योगी बिना किसी कामना के बिना किसी इच्छा के, बिना किसी अभिलाषा के, बिना किसी धन के प्रलोभन व इस प्रकार की भावनाओं से वहां पर बैठें और सारी दुनिरयां को यह विद्या प्रदान करें। बन्धुओं, आज इस पावन अवसर पर आपको यह अवगत कराना चाहता हूं कि जब मैं उत्तराखण्ड संस्कृत एकेडमी का उपाध्यक्ष बना था तो मुझसे पूछा गया था कि मेरी इच्छा क्या है? मैने उस समय कहा था कि संस्कृत को उत्तराखण्ड की द्वितीय राजभाषा बनना चाहिये। सौभाग्य से यह स्वप्न साकार रूप ले चुका है। पुनः पूर्व प्रकरण का उललेख कर उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूं कि ऐसा विश्वविद्यालय स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती के मार्गदर्शन में बनें जहां आदर्श मानव का निर्माण हो। इस विश्वविद्यालय में हमारे अन्य विद्वान डा. विक्रम कुमार विवेकी, डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री, पंडित वेद प्रकाश श्रोत्रिय जी आदि उस विद्यालय को अपनी सहर्ष सेवायें प्रस्तुत करेंगे। मैंने, डा. सोमदेव शास्त्री, स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती व डा. विक्रम कुमार विवेकी जी ने आर्ष पाठविधि से पढ़कर जो वैदिक ज्ञान प्राप्त किया है उसका यदि हम विस्तार कर सकें तो यह मेरे व हम सबके जीवन की सफलता होगी। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि संस्कृत की आर्ष पाठ विधि के अध्ययन-अध्यापन को उत्तराखण्ड सरकार से जो मान्यता प्राप्त हुई है, वह अन्तिम होगी तथा उसे कोई खण्डित नहीं कर सकेगा।

ब्रह्मचारियों को अन्य विद्यालयों में जाकर आर्ष पाठविधि की परीक्षायें देने में आने वाली कठिनाईयों व असुविधाओं की विद्वान वक्ता ने चर्चा की और विश्वास व्यक्त किया कि भविष्य में यह कठिनाई नहीं होगी, उनका परीक्षा केन्द्र यहीं गुरूकुल में होगा। उन्होंने कहा कि मैं आपके सम्मुख यहां इसकी घोषणा करता हूं। विद्वान वक्ता ने कहा कि यदि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी यहां आयें और यहां के विशाल जनसमूह को देखें, यहां के वातावरण की सुगन्धी को अनुभव करें तो देश के सामने जो समस्यायें एवं चुनौतियां हैं, उनको हल करने में उन्हें सहायता मिल सकती है। आज मैं इतना अभिभूत हूं, इतना आनन्दित हूं कि उसका वर्णन कर नहीं सकता। आपने अपने विद्यार्थी जीवन के सहाध्यायी-साथियों की चर्चा की और कहा कि डा. सोमदेव जी ने विगत 25 वर्षों से अपने ग्राम ननोरा में जो यज्ञ रचा रखा है वह प्रशंसनीय है। उन्होंने सभी विद्वानों व श्रोताओं के प्रति शुभकामनायें व्यक्त कीं और कहा कि परमात्मा आप सब पर आनन्द की वर्षा करें। हम सब लोग मिल कर वैदिक संस्कृति, वैदिक शिक्षा पद्धति तथा गुरूकुल शिक्षा प्रणाली के ध्वजावाहक बन करके सारी दुनियां में इसका प्रकाश फैलायें। इन शब्दों के साथ प्रो. महावीर जी ने सबका धन्यवाद किया। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में पठन पाठन की विधि लिखी है। ब्रह्मचारी 20-21 वर्षों में ऋषि प्रणीत ग्रन्थों को पढ़कर तथा उनसे अर्जित ज्ञान से ज्ञान-विज्ञान का बहुत बड़ा काम कर सकता है। आर्ष ग्रन्थों को पढ़ना समुद्र में गोता लगाना और मोतियों को पाना है। उन्होंने कहा कि प्रो. महावीर जी ने मेरी प्रशंसा की है इसके लिए मैं उनका धन्यवाद करता हूं। डा. महावीर जी के गुणों पर स्वामीजी ने प्रकाश डाला और  गुरूकुलों को उनसे मिल रहे सहयोग के लिए उनका आभार व धन्यवाद व्यक्त किया। स्वामीजी ने बताया कि डा. महावीर जी, कुलपति, उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय ने संस्कृत की आर्ष पद्धति को उत्तराखण्ड में मान्यता प्रदान कराई है और इसके लिए उनका आभार और धन्यवाद किया।

डा. महावीर अग्रवाल जी का व्याख्यान हमें राजर्षि मनु की मनुस्मृति के वचन ‘‘एतदे्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।” को स्मरण कराता है जिसमें कहा गया है कि हमारा देश भारत संसार के सभी मानवों में श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले चरित्र की शिक्षा दिया करता था। प्रतीक्षा है कि डा. महावीर अग्रवाल जी के विचार शीघ्र साकार रूप लें।

प्रस्तुतकर्त्ता –मनमोहन कुमार आर्य

 

2 thoughts on “एक ऐसा विश्वविद्यालय बने जहां आदर्श मानव का निर्माण हो: डा. महावीर

  • Manoj Pandey

    आर्य समाजी मुझे बस आर्य के अर्थ और इस शब्द की उत्पत्ति बता सकें तो अति कृपा होगी।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा.

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