मुक्तक/दोहा

बुलन्द अशआर

ज़िंदगी से मौत बोली, ख़ाक हस्ती एक दिन
जिस्म को रह जायँगी, रूहें तरसती एक दिन
मौत ही इक चीज़ है, कॉमन सभी में दोस्तो
देखिये क्या सरबलन्दी और पस्ती एक दिन

रोज़ बनता और बिगड़ता हुस्न है बाज़ार का
दिल से ज़्यादा तो न होगी, चीज़ सस्ती एक दिन
मुफलिसी है, शाइरी है और है दीवानगी
“रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन”

काँटे ख़ुद के लिए जब चुने दोस्तो
आम से ख़ास यूँ हम बने दोस्तो
राह दुश्वार थी, हर कदम मुश्किलें
पार जंगल किये यूँ घने दोस्तो

क्यों बचे नामोनिशां जनतंत्र में
कोई है क्या बाग़वां जनतंत्र में
रहनुमा खुद लूटते हैं कारवां
दुःख भरी है दास्तां जनतंत्र में

तसव्वुर का नशा गहरा हुआ है
दिवाना बिन पिए ही झूमता है
गुज़र अब साथ भी मुमकिन कहाँ था
मैं उसको वो मुझे पहचानता है

गिरी बिजली नशे मन पर हमारे
न रोया कोई, कैसा हादिसा है
बलन्दी नाचती है सर पे चढ़के
कहाँ वो मेरी जानिब देखता है

जिसे कल ग़ैर समझे थे वही अब
रगे – जां में हमारी आ बसा है

महावीर उत्तरांचली

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६