कविता

“हवा का झोंका”

“हवा का झोंका”
वह दिल हचमचा कर चली गयी मुझे छूकर किनारे से
बड़ी सिद्दत से पूछा तो लोंग कहते हैं हवा का झोका है ||

मन में कुछ अजब सा विचार आ रहा है
इन आँखों में फिर उसका दीदार आ रहा है
देर तक बरस गयी बिन मौसम की बारीश सी
क्यूँ ख्यालों में सावन का अब ख़याल आ रहा है ||

उमड़ पड़ी हैं पुरानी तवारिखें पहलू में मेरे पूर्वी रिमझिम सी
गैर पायलों की खनक कहीं दूर से मुझें लगा उसी पैरों की है ||

समय आज फिर से तपिस दे रही है
मन की ललक है कसक दे रही है
जाने किसी गली से हैं यादों की दस्तक
इन पुराने घरों को मसक दे रही है ||

होती थी दीवाली कभी इस आँगन में जिसके संग
आज मन में गुबार ही गुबार है ये उन दीयों की कतार है ||

झूल तो लिया मैंने भी डाली का झूला उस गुबार में आकर
पर वों सावन किधर से लाऊं आज जो तेरे संग की फुहार है ||

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on ““हवा का झोंका”

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी

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