लघुकथा – खुद्दारी
“पिताजी आप ठीक तो हो न? पैसो की कमी मत देखना,अब मैं बहुत पैसा कमाने लगा हूँ। पर उसे क्या पता उसका बाप जब से वो छोटा था तभी से रिक्शा ही उसका कमाऊं पूत था और आज भी उसी से रोजी रोटी चलाता हूँ। जो पैसा वो भेजता है हाथ भी न लगाता हूँ ,और क्यों लगाऊँ ! बुढ़ापे में इतना खुद्दार जो हो गया हूँ। उसको लायक बनाना मेरा फर्ज था, मेरी जिम्मेदारी लेना उसकी कोई मजबूरी हो ये मैं नही समझता। इसलिए सर्दी, गर्मी बारिश कुछ भी हो ये रिक्शा चलाना मेरी आराधना है
हर इतवार को नीलू का फोन आ जाता है, और मैं उसे आश्वस्त कर अपने काम में लग जाता हूँ
— शान्ति पुरोहित