ग़ज़ल
करो परवाह बस मेरी ख़ुशी की
जरूरत क्या तुम्हे है बन्दगी की
अगर हमराज हो मेरे सनम तुम
बताओ राज आँखों की नमी की
सभी के पाप धोकर भी बहुत खुश
अजब है दास्तां बहती नदी की
शहीदो को सभी करते नमन है
न होती बात जग में बुजदिली की ।
करो महसूस ये अल्फाज मेरे
नही मुझको समझ है शायरी की ।
वफ़ा की राह पर लाखों फ़ना है
जरूरत क्या तुझे है ख़ुदकुशी की ।
मसल कर फेक दी जाती हमेशा
यही है दासता कच्ची कली की ।
उजाला ‘धर्म’ बन पैदा हुआ जब
रियासत मिट गई है तीरगी की ।
— धर्म पाण्डेय
अच्छी गजल !
गज़ल में तुकांत होता है क्या ?
नदी शायरी तुकांत होगा क्या ?
हाँ। बड़ी ई की मात्रा यदि सर्वनिष्ठ है तो पर्याप्त है।