कहानी : आत्मग्लानि
कॉलेज में प्रबंधन की पढ़ाई के दौरान सुमित और महीप में दोस्ती हुई थी। दोनों ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे। कॉलेज महीप के शहर में था और सुमित कॉलेज हॉस्टल में ही रहा करता था। दोनों की घरेलू बातें भी होती थी। सुमित के पिता पुलिस में थे और उनकी असमय मृत्यु ने सुमित को घर का जिम्मेदार बना दिया था और एकमात्र आश्रित होने के कारण सुमित को ही पुलिस की नौकरी भी मिलनी थी। धीरे धीरे दो वर्ष बीत गए अब बातें फ़ोन से होने लगी थी। बतौर आश्रित विभाग ने सुमित को उपनिरीक्षक पुलिस बना दिया और प्रशिक्षण के लिए इलाहबाद भेज दिया। महीप ने दिल्ली में प्राइवेट नौकरी ज्वाइन की और घर से ही आना जाना बनाये रखा। समय बीतता रहा।
महीप की शादी का समय आया उसने सुमित को कई बार कॉल किया पर प्रशिक्षण में सुमित को छुट्टी न मिल सकी। बातो का सिलसिला जारी रहा। महीप के लिए वो बुरा दिन था दिन भर ऑफिस में बॉस की डॉट और बोझिल सफर में कई बार अनजान नम्बर से कॉल आई और कट गयी ये कई बार हुआ। महीप परेशान हो उठा, नंबर मिलाकर बातें की तो पता चला ये सुमित की शरारत थी। महीप ने थोड़े क्रोध से सुमित को डांटते हुए कहा, क्या बचपना है यार ! मजाक छोडो और जिंदगी में आगे बढ़ो फिर महीप ने कॉल काट दी। अगले दिन महीप को गलती का अहसास हुआ उसने सुमित को कॉल की मगर उसके सभी नंबर बंद थे। नाराजगी जानकर वो अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया।
दिन बीतते रहे, एक सप्ताह, बीस दिन मगर कॉल नहीं मिली। अब महीप परेशान हो उठा उसने सभी लोगो से पूछा मगर कोई सुमित के नजदीक ना था। महीप सुबह शाम फ़ोन मिलता मगर फ़ोन बंद होता। महीप को सुमित से इतने गुस्से की उम्मीद नहीं थी। दो महीने बीत गए। हर दिन की तरह महीप ने फिर रात को छत से फ़ोन किया। आज घंटी गयी, महीप खुश हो उठा सोचने लगा गलती बाद में मानूंगा , पहले इसको तंग करने के लिए माफ़ी मांगने को कहूँगा, ये सोचते हुए महीप ने तपाक से कहा – कहां है तू ? पता भी है, मैं कितना परेशान था। मगर उधर से एक स्त्री की करुण आवाज थी। महीप ने कहा कि उसकी सुमित से बात करा दी जाये। स्त्री ने महीप से उसका परिचय पूछा महीप ने अपना नाम ही बताया था की करुण आवाज रोने में बदल गयी। आखिर क्या हुआ आपको ? सुमित कहा है ? महीप ने भरे गले से बैठते हुए पूछा। स्त्री ने बताया की डेढ़ महीने पहले एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी। ये शब्द महीप के हौसले पस्त कर गए उसके रोने की आवाजे गुंजने लगी आत्मग्लानि के साथ साथ उसे अपने वो अंतिम शब्द रह रह के घायल करते रहते है।
..जिंदगी में आगे बढ़ो !! सच है एक सच्चे मित्र को खोना अपनी सबसे अमूल्य निधि को खोने जैसा है।
आँखें नम हो गईं .
sukriya ji apko achi lagi
वाह् रौसा जी सुन्दर कहानी!!
धन्यवाद जी