ग़ज़ल
ज़रा सा था ख़ौफ़ चेहरे पर थी ज़रा सी फ़िक्र
तन्हाइयों से घबरा हम ग़ैरों से मिलने लगे
नाज़ था आईने में दिखते जिस अक्स पर
वही साये अजनबी बन हमसे मिलने लगे
प्रेम की फुहारों संग बरसा था जो सावन
कतरा-कतरा बह वो आज धरा से मिलने लगे
कैद कर रखा था जिन अफसानों को सीने में
वही फ़साने दर्द बनकर कलम से मिलने लगे
अब भी है रस्म-ए-उल्फत फिर भी हैं हैरान
क्यों आज रहबर बन रकीबो से मिलने लगे।
— प्रिया वच्छानी