कविता : बेटियां /पत्तियां
पत्तियों का डाली से छूटना आया
पतझर मे जेसे वृक्ष को रोना आया
परिंदों का था ये पत्तियों का पर्दा
छाँव छूटी और तपिश गहराया |
पत्तियां भी होती बेटियों की तरह
वृक्ष / घर को ये कर जाती सूना
रूठ कर करती है जिद्दी फरमाइशे
पिता /वृक्ष कर देते पूरी फरमाइशें |
नई कोपले फूटने पर कोयल गाती
सूनेपन मे फिर से खुशिया छा जाती
पूजे जाते है आज भी वृक्ष और बेटियां
वृक्ष पर ना करो वार ,ना करो भ्रूण -हत्या |
बेटियां रो -रोकर कह रही इश्वर से
कब ख़त्म होंगे भ्रूण हत्याओं के पाप
पर्यावरण /रिश्ते हो जायेंगे जब ख़त्म
दुनिया करने लगेगी तब फिर संताप |
बेटियां और वृक्ष से ही तो कल है
इनसे ही जीवन जीने का एक एक पल है
संकल्प लेना होगा इन्हे बचाने का आज
दुनिया बचाने का होगा ये ही एक राज |
— संजय वर्मा ‘दृष्टि’