सिसकियाँ
यहां इंसानी समाज में
इंसानी शक्लों में दरिंदे देखे हैं
मासूम कलियों को रौंदते हुए
कुछ मुक्त परिंदे देखे हैं
रिश्तों की मर्यादा क्या समझें
घर वाले ही अस्मत लूटते देखे हैं
अरे शर्म भी नही आती
ऐसे जालिम बैठे हैं सत्ता में
मासूम बच्चीयों को भी जिन्होंने न छोड़ा
उन्हें पुचकारते हुए बाशिंदे देखे हैं।
सोच के रूह काम्प् जाती है
धड़कन भी मुह को आती है
कहाँ गयी मानवीय संवेदनायें
क्या इन्हें भी निगल गयी ये वासनाएं
काश कोई इन चीखों का मरहम बन पाता
बहशी दरिंदो का कम्पन बन पाता
लेकिन आह… हमने तो बीच बाजार में
खुद पनाह देने वालो के हाथों से
लूटते हुए मन्ज़र देखे हैं
यहां इंसानी समाज में
इंसानी शक्लों में दरिंदे देखे हैं
सिसकियाँ ही सिसकियाँ दिखाई देती हैं अब
खुली आँखों से आंसू देने वाले अंधे देखे हैं