कविता : मेरी परिभाषा
मुझे नदिया न समझ लेना
समन्दर हूँ मैं तो इक गहरा !
बड़े ही धोखे है खाया हुआ
मासूम सा अपना ये चेहरा !
चूर चूर करना चाहा सब ने
खाब देखा जो भी सुनहरा !
कर ले लाख यत्न अब कोई
दिल पे लगा लिया है पहरा !
बहुत हो गया ये खेल अब
ये दिल नहीं है इक बसेरा !
हारेंगे नहीं अब तनिक भी
संवरेगा हर खाब जो बिखरा !
नहीं किसी के हैं मोहताज
रोज होगा इक नया सवेरा !
ये दुनियां क्या रोकेगी तुझे
बढ़ेगा खुद ही कदम ठहरा !
कह रहे हैं ये होंसले मुझसे
रोशन होगा हर दिन तेरा !
तू अब पीछे न देख “सोनिया”
खुशियाँ बांधेंगी सर पे तेरे सेहरा !
— डॉ सोनिया गुप्ता
बहुत सुंदर कविता सोनिया जी
कविता बहुत अच्छी लगी ,optimistic विचार हैं आप के .
कविता बहुत अच्छी लगी ,optimistic विचार हैं आप के .