कविता

आखिर कब तक ?

गोधूली वेला में
क्षितिज पे फैली
वो रक्त रंजित लालिमा
अस्फुट शब्दों में चीत्कार करती
बार बार अश्रु भरी आँखों से
मुझे ताकती रही
और मैं ढूंढ़ती रही वो मकान
उसके पीछे पीपल का वो बुजुर्गाना छाँव
जिसके पत्तों से सूर्य की किरणें
छन छन कर सहला जाती
वक्त का एहसास
हर पल करा जाती
अब ना वो घर रहा
ना वो प्यार भरी छाँव
रह गयी एक ठूँठ
खुद को निर्दोष और निर्बल साबित करने की
नाकाम कोशिश
रह गए वंहाँ कुछ खजुलाये कुत्ते
सूखी हड्डियों के ताजा रक्त चूसते हुए
व् पुराने टूटे कुएं से
उठती वो सड़ी मानवी गन्ध
जिसके ऊपर हजारों गिद्धों का
एक साथ उड़ना
एहसास करा जाती के
जिसके जल से शुरू होता था
गाँव का जीवन
आज उसी में हो गया है ख़त्म
रह गयी है एक दहशत
एक इन्तजार
कब तक गाँव का गाँव उजड़ता रहेगा
शहर का शहर वीराने की चादर ओढे
निशब्द आसुंओं से
खुद को भिगोता रहेगा
कब तक
आखिर कब तक ???

महिमा श्री 

महिमा श्री

नाम :-महिमाश्री शिक्षा :- एम.सी.ए , पटना, बिहार लेखन विधाएँ :- अतुकांत कविताएँ, ग़ज़ल, दोहें, कहानी, यात्रा- वृतांत, सामाजिक विषयों पर आलेख , समीक्षा साहित्यिक गतिविघियाँ- एकल काव्य संग्रह- “अकुलाहटें मेरे मन की” साझा काव्य संकलन “त्रिसुन्गंधी” , “परों को खोलते हुए-१”, “ सारांश समय का” , “काव्य सुगंध -2”, देश के विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, मासिक ई- पत्रिका शब्द व्यंजना में संपादन तथा अंतर्जाल और गोष्ठीयों में साहित्य सक्रियता। सम्प्रति :पब्लिक सेक्टर में सात साल काम करने के बाद (मार्च २००७-अगस्त २०१४) वर्तमान में स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता , नई दिल्ली मोबाइल :- 9910225441 ईमेल:- [email protected] Blogs:www.mahimashree.blogspots.com