लघुकथा — धरोहर
रमा वर्षों से बंद पड़े संदूक के सामान को उलट पलट कर देखती जाती और नाक मुहँ चढ़ाते हुए बड़बड़ाती जाती — ” आखिर कब तक मैं बुड्ढों के इन सड़े गले समानों को सहेज कर रखूँ , …दो कमरों के घर में बड़े होते बच्चों और बूढ़ों के साथ एडजस्ट करने में ही जिंदगी नीरस गुजरी जा रही है ,उपर से इनके सदियों पुराने बेकार निरर्थक सामान भी … ”
बगल के कमरे से बब्ली दादाजी का हाथ पकड़ कर — ” दद्दू जल्दी चलो मेरे दोस्त आज आपसे कहानी नहीं, आपके जमाने की बातें
सुनेंगें, और आपकी चीजें देख कर आपके साथ अपना ” हमारा समाज आज और कल ” प्रोजेक्ट भी पूरा करेंगें ” कहती हुयी उन्हें पार्क में ले गयी।
— मँजु शर्मा