कविता

कविता-2

दो शब्द जो होले से बोले
पलके नयनो पर भारी सी
क्या होता मेरा हाल सखी
जो हाले दिल सुनाते वो
तलब लगी थी दर्शन की
आँखे भटकी चातक सी
क्या होता मेरा हाल सखी
जो सामने उनको पाती तो
मैं जैसे खुद को खो बैठी
जो हल्का सा स्पर्श मिला उनका
क्या होता मेरा हाल सखी
गर पहलू मैं बैठाते वो
सिमटी मैं हया के आँचल में
हुई लाल लाज के पहरे में
क्या होता मेरा हाल सखी
गर प्रणय निवेदन करते वो
जिस दिन कान्हा के गीत सुनु
सुध बुध अपनी बिसरा जाऊँ
क्या होगा मेरा हाल सखी
गर कान्हा संग रास रचा पाऊँ
— विनय पंवार

विनय पंवार

मैं "विनय" एक गृहणी। हिंदी मेरा प्रिय विषय रहा है और साहित्य में अनन्त अभिरुचि भी। प्रशिक्षित अध्यापिका परन्तु पारिवारिक उत्तरदायित्वों के चलते अध्यापन अभिरुचि पर लगा विराम। अब जब बच्चे बड़े हो गए तो समय व्यतीत के लिए कलम को चुना। मन में उमड़ती भावनाओं को शब्दों का रूप देना आरम्भ किया।

One thought on “कविता-2

  • विजय कुमार सिंघल

    मोहक कविता !

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