गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

झुकी झुकी नज़रों ने राज बताया है;
दिल दरिया में इश्क़ नहाने आया है।

जब जब तेरी याद दबे पाँवों आई;
खिलते फूलों को हमने सहलाया है।

सच बेचारा छुपा कहीं लाचारी में,
झूठ बना सरदार बहुत इतराया है।

यायावर फिरता है चाँद निशा भर क्यों;
क्या उससे भी बिछुड़ा उसका साया है।

खूब शहीदी आँच सिकेंगी रोटी अब
लो गणतन्त्र दिवस फिर से अब आया है।

दिल में आज हुई कैसी ये हलचल फिर;
यादों का दर ये किसने खड़काया है।

पत्ते आज हवा खा नए ज़माने की,
जड़ से पूछे क्या गुल भला खिलाया है।

दाग लगा कैसे ये सब फिर पूछेंगे,,
चाँद उतरने से धरती घबराया है।

ज़ख्म मिले चाहत में हर इक गाम मुझे;
गम के बिस्तर हमने दर्द बिछाया है।

देश निकाला भूख कभी पायेगी क्या;
दिखा चाँद की रोटी सुत भरमाया है।

लो हमने दी आज मिटा अंतिम कड़ियाँ;
उनके’ खतों को जाकर गंग बहाया है।

सुलग रहे ज़ज़्बात तड़पती रूह यहाँ;
चाहत में तेरी दिल मोम गलाया है।

उतरेगा कोई तो चाँद दिले महफ़िल
धड़कन को ही सीढ़ी सनम बनाया है।

महक रहा कोना कोना घर का जिससे;
माँ की नेक दुआओं सरमाया है।

आफ़ताब गुम होता शब् की बाँहों में;
साथ फकत जुगनू ने यहाँ निभाया है।

ख़ाक हुए अरमान ‘शिखा’ थे दिल के फिर;
संग लहद पर नम कैसे ये पाया है।

— दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर प्रज्ञापुरम संचार कॉलोनी छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश)