ग़ज़ल
धरा है घूर्णन से त्रस्त, नभ विषणन में डूबा है
दशा पर जग की, ये ब्रह्माण्ड ही चिंतन में डूबा है
हर इक शय स्वार्थ में आकंठ इस उपवन में डूबी है
कली सौंदर्य में डूबी, भ्रमर गुंजन में डूबा है
बयां होगी सितम की दास्तां, लेकिन ज़रा ठहरो
सुख़नवर प्रेयसी के रूप के वर्णन में डूबा है
उदर के आग की वो क्या जलन महसूस कर पाए
जो चौबीसों घड़ी ही अनगिनत व्यंजन में डूबा है
संवारेगा वो किस्मत देश की, बस पेटियां भर ले
अभी कुछ दिन हुए आए, अभी शोषण में डूबा है
न मतलब ईश्वर तुझ से, न तुझ से वास्ता अल्लाह
ज़माना सिर्फ आय और व्यय के विश्लेषण में डूबा है
अधीन उन्माद के उसके हुए हैं चेतन-अवचेतन
जो क्षण भर को भी “जय” मदिरा भरे लोचन में डूबा है
==================================
जयनित कुमार मेहता
बढिया !
उम्दा गज़ल