गम का सैलाब…
ये गम का सैलाब जिसने मेरे अंदर
जन्म दिया एक शायरा को
ये बचपन से मेरे साथ है
मेरा हमनवाँ, मेरा ख़ैरख़्वाह बनकर
ताउम्र करता रहा मुझे छलनी
शीशे से भी तेज़ बातों की धार से
हमेशा ज़िंदगी से चुन चुनकर
सिर्फ दर्द हीं भरे हैं इन आँखों में
मेरी रूह से छिन लिया है इसने
एक एक लम्हे की खुशी को
साँसे अब कुछ यूं चलती है
जैसे एहसान कर रही हों मुझपर
मेरे अंदर की शायरा आज
खुद से हीं घबड़ा गई है और
तड़प कर कहती है मुझसे
चलो आज ‘खुदकशी’ कर लेते हैं
तभी ये ज़िंदगी खिलखिलाती है
और कहती है…’रश्मि’ बस टूट गई ???
‘दर्द’ से हीं तो हमें पहचान मिलती है।
— रश्मि अभय
बढ़िया !
शुक्रिया…