कविता

“कर प्रण सपथ”

“कर प्रण सपथ”

कर प्रण कर प्रण कर प्रण करप्रण सपथ
हर बेटा माँ भारती का चलता उसके पथ
वह मुंह कैसे बोलेगा जो बना हुआ है घून
बंटा हुआ विचार लिए खींचता गैर का रथ॥

बेचा जिसने नारोंको विचारोको त्योहारोंको
चले भंजाने मूर्ख वही माँ के जयकारों को
कहते हैं लिखा नहीं भारत के संबिधान में
भारत माँ की जय कैसे देदूँ मैं मजारों को॥

बोलूँगा जयहिन्द सुनों माँ की जय ना बोलू
जिस कोंख पैदा हुआ उसकी ममता ही तोलूँ
डीएनए कहता है कोई जाति नहीं बेईमानों की
दे मुझे आँचल से टुकड़ा पीर तुम्हारी ना झेलूँ॥

समझ नहीं आता है यारों अपनों की गद्दारी
भारत जैसा देश कहा हैं कहाँ नहीं बीमारी
एक रात हो आओं अपने सपनों के संसार में
हलक जान बची रह जाए, तो करना तैयारी ॥

बिनखुदाई खुदा न मिलता गौतम मानों बात
बड़ी बड़ी कुर्सी हिल जाती तेरी के औकात
शादी शहनाई दो दिन की दो दिन के मेहमान
गले की हड्डी बन जाती है अपनी ही बारात॥

महातम मिश्र (गौतम)

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on ““कर प्रण सपथ”

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सार्थक प्रेरक लेखन
    जयहिंद

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय, जय हिन्द

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