कविता : पीड़ा
पीड़ा भी घरबार
देखतीं है
आंखो का मीठा
पानी देखती है
सूखे हृदय में
नहीं भरती वो
अपनी आहों को
उसको भी तो
उपजने के लिए
उपजाऊ मन चाहिए
आंखों का सावन
भरी हुई प्रेम की
नदियां चाहिए
साफ सुथरा मन
आंगन चाहिए
तब जाकर पीड़ा
हृदय में घर करती है
वरना कटु मन
और रिक्त जीवन
कर देती है