कविता : उपेक्षा
तुम्हारा
विरोधाभास दिखलाना
बात-बात पर ना नुकुर करना
भाव यह उपेक्षा का
दिखलाना
आत्म को
तोड़ जाता है मुझको
अन्दर तक गहन गहराई तक
सोचती हूँ कि क्या हाड़ माँस की
बनी मैं बुत हूँ
बहुत दम्भ
भरते पुरुष होने का तुम
पर मैं भी कोई छाया मात्र नहीं
दीप जलेगा एक तुम्हारे
वंश का मुझसे वहीं
तेज मुझमें
— डॉ मधु त्रिवेदी