कविता : जिंदगी का फलसफा
फलसफा जिंदगी का
न बदल पाया कभी
इस रात – दिन की कशमकश से
न उभर पाया कभी l
हर अरमान को मरते हुए
देखा है अक्सर
फिर भी इन्हें
न बचा पाया कभी l
आसमां की बुलंदियों को
छूना चाहा था
मगर चंद फासले भी तय
ना कर पाया कभी l
रातों की खामोशियाँ भी
अब डराने लगी हैं मुझे
सदियों के इस सन्नाटे को
ना तोड़ पाया कभी l
हादसा बनकर रह गया
हर लम्हा जिंदगी का
ये सिलसिला हादसों का
न बदल पाया कभी l
रिश्तों के भंवर में भी
मैं तन्हा रहा हर रोज
निभा पाया ना शायद
चंद रिश्ते भी कभी l
पतझड़ के टूटते पत्तों में
मैं तलाशा करता था खुद को
शायद इसीलिए बहारों को
समझ पाया ना कभी l
हर शाम जिंदगी की
मौत का पैगाम देती रही
फिर भी जिंदगी से दामन
न छुड़ा पाया कभी l
पत्थरों के शहर में
मैं ढून्ढता था इंसानों को
मगर वो बस्ती इंसानों की
ना ढून्ढ पाया कभी l
हर चेहरे में फरेब
और रंजिश नज़र आई मुझे
वो नज़र जो चाही थी
न तलाश पाया कभी l
आंसू बनकर बहती रही
आँखों की नमी
बहते हुए ये दरिया
ना रोक पाया कभी l
-मनोज चौहान