कविता

कविता : तुम और मैं

तूम
बुनते रहे स्वप्न
मैं जागती रही
रात भर
तुम निकल पड़े
जब मंजिल की ओर
मैं राहे तुम्हारी
बुहारती रही
पहर दर पहर
तुम्हारी सफलता
की सीड़ीयों पर
जितने भी कांटे थे
अपने ह्रदय के
सूनेपन मैं चूभोती रही
कोई पत्थर तुम्हें
जख्मी ना कर दे
अपने सिने पर
धेर्य के  पत्थर
रखती रही
सावन को पतझड
बना लिया था
ताकि तुम्हारी
सफलता को
बून्दें भिगोकर
साही सा बहा ना दे
तुम्हारे मन का सारा
बोझ हर रात तुम
जब मेरे मन पर
ड़ाल कर चेन की
निन्द सो जाते थे
तब मेरा होना
मुझे सार्थक लगता
तुम्हारे सपनों को
साफ जमीन देने के लिए
कई बार
मैंने
अपनी आत्मा को
मैला किया
तब जाकर
तूम ,तूम बने
और मैं , मैं ही
नहीं रही ।