कविता : माँ तुझ सा ना कोई
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ,
माँ तु मेरे लिए है कितना रोई ।
जब मैं रात जाग जाता था बिस्तर से ,
नींद अपनी भुला कर सुलाती थी मुझको ,
गिर कर भी चलना तु सिखाती थी मुझको ,
तुने मेरे लिए अपना निदियां है खोई ,
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ।
घुटनों पर रेंगते रेंगते जाने कब ,
अपने पैरों पर खड़ा हुआ ,
तेरी ममतामयी छाव में ,
जाने कब माँ मैं बड़ा हुआ ,
तुने मेरे लिए हर दर्द है सही ,
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ।
याद अाते है माँ वह बचपन के हँसाने वाले दिन ,
तेरी कोमल सी हाथ को पकड़ कर चलने वाले दिन ,
मेरे लिए हर सुख चैन थी भुलाई ,
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ।
जब भी तेरी याद आती है माँ ,
एक अजीब सी दिल में खामोशी सी छा जाती हैं ,
जब भी लेता हूँ तेरा नाम अपने जुबाँ पर ,
ना जाने माँ क्याे मेरा मन पिघल जाता है ,
मेरी यादें में बस तुम हो समाई ,
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ।
जब तु माँ मुस्कराती हो तो लगता है मुझे ,
नई ज़िन्दगी मिल गई ,
मेरी ‘सुनसान-वीरान’ सी गली मे ,
एक फुल सी खिल गई ,
मेरे हर मुस्कारहट पर तु है मुस्कारई ,
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ।
माँ तु अपने बेटे से कभी नाराज मत होना ,
माँ मैं नहीं चाहता हूँ कभी तुमको खोना ,
तुझ मे माँ मेरे दुनिया हैं समाई ,
माँ तुझ सा इस दुनिया में ना अपना कोई ,
माँ तु मेरे लिए है कितना रोई ।
— अखिलेश कुमार यादव
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह लाजवाब सृजन