राजनितिक दल सकारात्मक कदम उठाएं नहीं तो …..
लगता है कि राजनितिक गलियारों में बौद्धिक दिवालियापन अपने चरम पर है। सिर्फ उत्तेजित करने वाले और आक्रोश भरे बयान, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिक तनाव की हमेशा लटकती तलवार, मात्र मीडिया / सोशल मीडिया में बयानबाज़ी, आक्रान्ता बनाम मूलनिवासी.. फर्जी एडमिशन.. फर्जी डीग्री.. सूट-बूट.. विदेश यात्राओं पर बवाल.. “लोकतंत्र की हत्या” की दुहाई देते हुए लोकतंत्र बचाओ अभियान…. अपने बेगैरती पारम्परिक रूप तहत राजनैतिक रोटियाँ सेकने का एक और दौर…. हर रोज कोई न कोई बहाना बनाकर कहीं न कहीं धरने-जुलूस की आड़ में “भारत में असहिष्णुता का ड्रामा” शुरू कर देना, जिसके तहत सामान्य आपराधिक घटनाओं को भी खूब उछालना और एक दूसरे को नीचा दिखाना| अहंकारपूर्ण, असंवेदनशीलता इन नेताओं को बड़ा रास आ रहा है। दूसरी तरफ इसी कड़ी में पुलिस में व्यापत भ्रष्टाचार के कारण संपन्न वर्ग अपना दबदबा बनाने में सफल हो रहा है। निष्पक्षता का दवा करने वाले लोग भी इस लो में बह रहे हैं। अपने देश के खिलाफ इस तरह करने का परिणाम क्या होगा? शायद जनता ये सब सुनने के लिये तो नेता बिल्कुल भी नही चुनती है?
भले ही क्यों ना देश परमाणु-शक्ति सम्पन बन गया हो, अंतरिक्ष में घरेलू उपग्रह भेजने में और कृषि क्षेत्र में आत्म-निर्भर बन गया हो, पैसे देकर भी विकसित देशों के नखरे सहने की बजाय वर्ल्ड क्लास प्राद्योगिक संस्थान युवा प़ीढी को मुहय्या कराए हो, चाहे जनसंख्या के अनुपात में थोड़े ही सही, देश की सेना को विश्व की पांच शक्तिशाली सेनाओं में से एक बनाया हो!!! फिर भी आजादी के बाद हमारे देश की अस्सी प्रतिशत जनता जो एक जून की रोटी के लिए हाड़ तोड़ मेहनत कर रही है, फिर भी भूखे पेट सोने को मजबूर हैं| किसान मर रहे है, बेरोजगारी बढ़ रही है, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, सूखा आदि से आम जनता हलाकान है| देश में ऐसा प्रतीत होने लगा है कि भीड़तंत्र लोकतंत्र को चलाने लगा है| भीड़ जिसे परंपरा, लोकतांत्रिक मूल्यों और नैष्ठिक सिद्घांतों के बारे में कुछ नहीं पता| भीड़तंत्र ने इस लोकतांत्रिक मकसद को अस्त-व्यस्त कर दिया है|
रास्ते पर कंकड़ ही कंकड़ हो तो भी एक अच्छा जूता पहनकर उस पर चला जा सकता है.. लेकिन यदि एक अच्छे जूते के अंदर एक भी कंकड़ हो तो एक अच्छी सड़क पर भी कुछ कदम भी चलना मुश्किल है। यानी बाहर की चुनोतियों से नहीं हम अपनी अंदर की कमजोरियों से हारते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे लोकतंत्र के साथ हो रहा है जनता के चुने प्रतिनिधि एकजुट नज़र आते हैं जब उनके स्वयं के तनख्वाह और भत्ते बढ़ाने की बात आती है प्रस्ताव मिनिटों के हिसाब से पास हो कर कानून बन जाता है परन्तु जब जनता की सुविधा का कोई मसौदा सदन के पटल पर आए तो कभी इनकी संख्या पर्यापत नहीं होती तो कभी कोई अड़चन आ जाती है या जानबूझ कर खड़ी कर दी जाती है और जनहित प्रस्ताव लटक लटक कर धूल फाँकने लगते हैं। सिर्फ राजनीतिक रोटियाँ सेकने का मुद्दा बन कर रह जाते हैं|
भारत का संविधान भारत की आम जनता को “फंडामेंटल राइट्स और रिलिजियस फ्रीडम” की गारंटी देता है तो यहां तमाम धर्मों के लोग भी “डेमोक्रेटिक प्रिंसिपल्स” का सम्मान करते हैं और यह आज से नहीं है बल्कि सदियों और शताब्दियों से है। राष्ट्र के प्रति सबकी जिम्मेदारी को लेकर कहीं भी ‘किन्तु-परन्तु’ नहीं किया जा सकता है। किन्तु फिर भी यह गणतंत्र है जहां आजादी के बाद से एक ही वंश के तीन प्रधानमंत्रिओं ने, लोकतंत्र के मानदंडों के तहत ही सही, व्यक्तिगत तौर पर राज किया हो और उनके बाद 16 साल तक उनके उत्तराधिकारिओं ने सत्ता की बागडोर अप्रत्यक्ष तौर पर अपने ही हाथों में रखी हो| अब कोई राजनीतिक विचारधारा को लेकर ‘हीन भावना’ से ग्रसित हो जाए तो उस कुंठा का इलाज भी क्या है?
प्रजातंत्र की सफलता के लिए आर्थिक संतोष और देश की आम जनता की खुशी जरूरी है। यदि हम एक राष्ट्र के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें बहुत अमीर और बहुत गरीब के इस अंतर को कम करना होगा। राजनीति के आधुनिक खेल को “कबीर” नहीं “कुबेर” खेलते हैं, इस परिपाटी को बदलना होगा और जनता का शासन जनता के द्वारा ही संचालित करना होगा। और ये तभी संभव है जब जनता अपने बीच से अपना जन प्रतिनिधि चुनावों में खड़ा करे न कि इन राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित धनबलि, बाहुबली और माफ़िया टाइप के पीछे लग कर उनके ही जयकारे लगाए। अब देश की आम जनता को स्पष्ट कर ही देना चाहिए कि इस प्रकार की घटिया निम्नस्तरीय राजनीति का पटाक्षेप होना ही चाहिए और सत्ताधारी और विपक्षी दल देश की जनता की मुलभुत सुविधाओं के लिए सकारात्मक कदम उठाएं नहीं तो …..
एक कहावत है कि “एक गरीब परिवार कई दिनों से भूखा था लेकिन परिवार में एकता बहुत थी सब एकजुट होकर कुछ सोच रहे थे कि क्या किया जाए तो परिवार के एक सदस्य ने कहा कि चलो ख्याली चटनी बनाए तो दूसरी तरफ से आवाज आई कि जब ख्याली ही बनानी है तो फिर चटनी क्यों पुलाओ बनाते है ओर फिर शुरू हो गए सब ख्याली बिरयानी बनाने ओर फिर खाने भी लगे भाई क्या बात बहुत उम्दा बनी है जबकि कुछ नही बना था।” ठीक इसी प्रकार का कुछ हाल हम जनता का भी है …..
प्रिय ब्लॉगर विजय भाई जी, बाहर की चुनौतियों से नहीं हम अपनी अंदर की कमजोरियों से हारते हैं और राजनीति के आधुनिक खेल को “कबीर” नहीं “कुबेर” खेलते हैं, आपकी लेखनी के नगीने हैं. अति सुंदर शोधपूर्ण और विवेकात्मक आलेख के लिए आभार.