ईश्वर ने मुझे मनुष्य क्यों बनाया?
ओ३म्
मैं मनुष्य हूं और मुझे मनुष्य व पुरुष जाति में यह जन्म मेरे माता-पिता से प्राप्त हुआ है। मेरे जन्म को लगभग 64 वर्ष हो गये परन्तु आज पहली बार मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि इस बात पर भी विचार करूं कि ईश्वर ने मुझे मनुष्य और वह भी पुरुष योनि में ही क्यों उत्पन्न किया। माता-पिता भी कोई अन्य हो सकते थे। इसका चयन भी परमात्मा ने ही किया। ईश्वर न तो होने वाले माता-पिताओं से सन्तान के बारे में पूछता है और न ही उस जीवात्मा से जिसको वह मनुष्य आदि अनेकानेक योनियों में जन्म देता है। इसका भी अवश्य कोई वैध कारण होना चाहिये और हमें लगता है कि वह अवश्य है। अतः आज का यह लेख इन्ही प्रश्नों के समाधान ढूंढने के लिए लिखा जा रहा है। प्रथम प्रश्न यह है कि परमात्मा ने मुझे मनुष्य ही क्यों बनाया? हमें लगता है कि इस प्रश्न का उत्तर उन पठित लोगों को नहीं मिल सकता जिन्होंने वेद, वैदिक साहित्य वा किसी वेद मत के जानने वाले विद्वान की संगति न की हो या उसके लिखे विचार व पुस्तकादि को न पढ़ा हो। वेद व वैदिक साहित्य इसका क्या उत्तर देते हैं और वह उत्तर युक्ति व तर्क के आधार पर सही है या नहीं, इसका अध्ययन व विचार करने पर इसका सही उत्तर जाना जा सकता है। सबसे पहले तो हम सबको यह जानना चाहिये कि हम केवल शरीर नाम की सत्ता नहीं है अपितु हमारा यह भौतिक शरीर एक सूक्ष्म, एकदेशी, स्वल्प-परिमाण चेतन तत्व जीवात्मा का साधन चा औजार है। इन दोनों, जड़ शरीर व चेतन जीवात्मा, के संयुक्त होकर माता-पिता के द्वारा संसार में आने का नाम जन्म होता है और समय-समय के साथ जन्में शरीर की वृद्धि होकर इसमें बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्धावस्थायें आती है। मनुष्य का शरीर जन्म के बाद वृद्धि को प्राप्त होता है परन्तु इसमें, हृदय में, निवास करने वाला जीवात्मा अपने मूल स्वरूप, चेतन, अल्प परिमाण, एक देशी, अल्पज्ञता, राग द्वेष युक्त आदि से युक्त, इस शरीर के भीतर ही विद्यमान रहता है। हमारा यह जीवात्मा पिता, माता व जन्म लेने वाली सन्तान के शरीर के भीतर कहां से व कैसे आता है, इसको जानने के लिए ऊहा से काम लेना होता है।
वैदिक धर्म व अनेक मत भी अपनी-अपनी ज्ञान की स्थिति के अनुसार पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते हैं। हमारे अपने देश सहित प्रायः सभी देशों में ऐसे ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जिसमें बाल्यकाल में कुछ व किन्हीं बच्चों में पूर्व जन्म की स्मृतियां विद्यमान रहती हैं। महर्षि दयानन्द ने भी सन् 1874 में पुनर्जन्म वा पूर्वजन्म पर एक उपदेश दिया था जिसमें उन्होंने जन्म-मृत्यु का उल्लेख कर पूर्व जन्म को अनेक अकाट्य प्रमाण देकर सिद्ध किया था। इस आधार पर सभी मनुष्यों व प्राणियों का पुनर्जन्म सिद्ध होता है। हम देखते हैं कि सभी प्राणी व मनुष्य वृद्धावस्था के बाद मृत्यु को प्राप्त होते हैं जिसमें शरीर से जीवात्मा पृथक होकर बाहर निकल जाता है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण यह कहां जाता है, दिखाई नहीं देता और इसी प्रकार जीवात्मा से सूक्ष्म किसी अज्ञानी, अल्पज्ञानी व ज्ञानी मनुष्य को भी ईश्वर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने के कारण वह आंखों से दिखाई नहीं देता। यहां यह भी जान लेना उचित है कि ईश्वर ने हमारी आंखें ईश्वर व जीवात्मा के देखने के लिए नहीं बनाई हैं अपितु इनका उद्देश्य व कार्य भौतिक स्थूल पदार्थों को देखना ही है। इसी कारण हमारी आंखे ईश्वर, अपनी व अन्यों की जीवात्माओं को नहीं देख पातीं। अनेक भौतिक सूक्ष्म पदार्थ भी आंखों से दिखाई नहीं देते हैं जैसे कि किसी पदार्थ के अणु, परमाणु व परमाणुस्थ इलेक्ट्रान, प्रोटान व न्यूट्रान कण। इसके साथ ही हम वायु, वायु में मिश्रित अनेक गैसों व सूक्ष्म धुवें, वायु में वाष्प आदि को भी नहीं देख पाते हैं।
हमारा यह जीवात्मा जब मनुष्य योनि में जन्म लेता व वृद्धि को प्राप्त होता है तो यह शुभ-अशुभ नाना प्रकार के कर्मों को करता है। ईश्वर न्यायाधीश है, उसका काम सभी जीवों के कर्मों के फल देना है। शुभ व अशुभ कर्मों के यह फल मृत्यु काल आने तक पूरे नहीं दिये जा सकते क्योंकि मनुष्य योनि उभय योनि होने से जन्म से मृत्यु पर्यन्त नये नये अनेक कर्म प्रतिक्षण या प्रतिदिन होते रहते हैं और प्रारब्ध व क्रियमाण कर्मों के फल भी जीवात्मा भोगता रहता है। जो कर्म प्रारब्ध व इस जीवन के शेष बच जाते हैं वही मृत्यु होने पर हमारा नया प्रारब्ध बनता है और यही प्रारब्ध हमारे भावी जन्म, अर्थात् पुनर्जन्म का, कारण व आधार होता है। इसे जान व समझ लेने पर हमें विदित होता है कि मेरा व हम सबका यह मानव जन्म इस प्रारब्ध के अनुसार भिन्न माता-पिताओं से हुआ है। हमारे माता-पिता ईश्वर की व्यवयस्था के साधन बने हैं और ईश्वर इस व्यवस्था का सर्वोपरि अधीश्वर है। हम सब मनुष्यों के जो शुभ व अशुभ कर्म हैं, वह भिन्न-भिन्न व अलग-अलग हैं। इसी प्रकार सभी मनुष्य जन्म पाने वालों की आकृति, रूप, रंग, गुण, कर्म, स्वभाव, व्यवहार व आदतों में भी भिन्नता है। माता-पिता के रूप में हमारा परिवेश भी ईश्वर ने हमारे प्रारब्ध के अनुसार तय किया है और हमें स्त्री वा पुरुष किसका शरीर मिलना है, वह भी हमारे प्रारब्ध के अनुसार ईश्वर द्वारा ही तय किया गया है।
हमारा भावी जीवन ईश्वर ने हमारे प्रारब्ध व पूर्व जन्मों के संचित कर्मों के आधार पर तो किया ही है, इसके साथ हमें जो माता-पिता व कुटुम्बी जन मिले हैं वह भी ईश्वर ने हमारे इस जन्म के माता-पिता व अन्य संबंधियों के प्रारब्ध आदि के आधार पर निश्चित किये हैं जिससे हमारे व उन सबके प्रति न्याय होता है। इन सभी उत्तरों को जब हम ईश्वर व जीवात्मा के वैदिक स्वरूप, कर्म-फल सिद्धान्त व सृष्टि की रचना, स्थिति व प्रलय पर अपने ध्यान व चिन्तन को केन्द्रित कर विश्लेषण करते हैं तो हमें यह सभी उत्तर पूर्णतया तर्क व युक्ति से सत्य प्रतीत होते हैं। इनमें कहीं किसी प्रकार का भी विरोधाभाष या अस्वीकार्य बातें नहीं हैं। अतः यह सिद्धान्त संसार के सभी मनुष्यों को समान रूप से माननीय होना चाहिये परन्तु मत-मतान्तरों के अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण लोग एकमत नहीं हो पा रहे हैं। इस सत्य व सर्वहितकारी नियम व सिद्धान्त को सबसे मनवाने का कार्य यद्यपि वैदिक धर्मी आर्यसमाजी करते हैं परन्तु यह किसी भी मनुष्य व संस्था की क्षमता में नहीं है। यह तो तभी हो सकेगा जब ईश्वर इसके लिए कोई विशेष प्रयत्न अपने स्तर पर करेंगे जैसा कि उन्होंने सन् 1825 व उसके पूर्व समय की वैदिक धर्म की स्थिति को देखकर किया था और ऋषि दयानदं को न केवल जन्म दिया अपितु उनकी प्रकृति आदि इस प्रकार की थी कि उन्होंने अपने जीवन में छोटी-छोटी बातों को महत्व दिया और हृदय में तीव्र वैराग्य की भावनाओं के कारण सांसारिक सुखों को तुच्छ समझ कर देशोपकार व मानव जाति की उन्नति में स्वयं को लगाकर अपना जीवन संसार के लोगों को ईश्वर से मिलाने व उनके समस्त दुःखों को दूर करने में ही समर्पित कर दिया।
इस लेख के शीर्षक में जिस प्रश्न का उत्तर अपेक्षित था, वह हमें मिल गया है। हमारा जीवन हमारे पूर्व जन्मों व इस जन्म के शुभ व अशुभ कर्मों पर निर्भर करता है। ईश्वर की व्यवस्था है कि प्रत्येक जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों के फल अवश्यमेव भोगने होते हैं। कोई भी कर्म वर्तमान व भावी जन्म-जन्मान्तर में बिना भोगे निश्प्रभावी व नष्ट नहीं होता। मनुष्य जीवन हमें ईश्वर से श्रेष्ठ वा शुभ कर्मों के करने से मिलता है। हमारे कर्म यदि अशुभ होंगे और इनकी संख्या व परिमाण शुभ कर्मों से अधिक होगा तो हम मनुष्य जीवन के अधिकारी न होकर पशु, पक्षी आदि निम्न योनि के शरीरों को प्राप्त करेंगे जहां दुःख अधिक व सुख कम है। मनुष्य योनि में सुख अधिक व दुःख कम हैं परन्तु हमारे देश में अज्ञानी व स्वार्थी मनुष्यों द्वारा सामान्य मनुष्यों का जो शोषण व उनके प्रति अन्याय आदि किया जाता है उससे उन निरपराध मनुष्यों को भी अनावश्यक दुःख की स्थिति से गुजरना पड़ता है जिसके लिए समाज के अत्याचारी व भ्रष्ट लोग ही उत्तरादायी हैं। यह लोग अपने इन निन्दनीय अशुभ कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से जन्म-जन्मान्तर में अवश्य प्राप्त करेंगे। इस कर्म रहस्य को जानकर ज्ञानी व विवेकशील मनुष्यों को उचित हैं कि वह वेदें व वैदिक साहित्य, मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों को पढ़कर अपना कर्तव्य निर्धारित कर लें जिससे उनका वर्तमान जीवन व परजन्म सभी सुखों से पूरित हो व कालान्तर में मोक्ष प्राप्त कर उनकी मोक्षावधि तक दुःखों से पूर्ण निवृत्ति हो सके। लेख की समाप्ती पर हम अपने अनुभव में आयी यह बात भी कहना चाहते हैं कि संसार में वेद मत की समानता में कोई मत व धर्म नहीं है। अन्य मत वेदों से कोसों दूर हैं जो मनुष्य को अशुभ कर्मों के त्याग की यथार्थ प्रेरणा नहीं देते जिससे उनका मोक्ष जन्म-जन्मान्तर में कदापि सम्भव होता नहीं दीखता। जीवात्मा का मोक्ष केवल वैदिक रीति से जीवन व्यतीत करते हुए, अर्थात् सन्ध्योपासना व अग्निहोत्र यज्ञ आदि पंचमहायज्ञ करते हुए ही सम्भव है जिसका केवल वैदिक धर्म में ही विधान व प्रचलन है और यह पूर्णतः तर्कसंग व विवेकपूर्ण है। हम सारी दुनिया के लोगों का आह्वान करते हैं कि वह वैदिक धर्म की शरण में आकर अपना योगक्षेम प्राप्त करें। यह छोटा-मुंह बड़ी बात है परन्तु है पूर्ण शत प्रतिशत सत्य। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य
प्रिय मनमोहन भाई जी, अति सुंदर लेख के लिए आभार.
नमस्ते आदरणीय बहिन जी। लेख पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी ,लेख पड़ा और अच्छा लगा .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।