कविता : अजनबी
एक अजनबी और,
कभी अपना सा,
दिल की देहरी पर जो,
दस्तक देता है बार बार।
अजीब सी कश्मकश है,
कैसे यकीन कर लूँ,
और खोल दूँ,
वो वर्षों से बन्द द्वार।
छुपाई है भीतर जिसके,
तनहाइयां अपनी,
और दबा रक्खा है,
दर्द हज़ार।
अधूरी ख्वाहिशें हैं ,
और अनचाही बंदिशें,
निकलना चाहती हूँ मैं भी,
तोड़कर रस्मों की कारागार।
उसकी आहट से ही,
गूंजी है सरगम सी,
उसकी आवाज़ से,
बजने लगा है,
मेरे मन का तार।
जिसको छूकर है,
हवाएं महकी ,
गुल सा खिल के,
महकने लगा है
मेरा संसार।
— सुमन शर्मा
वाह
अति सुंदर