खिड़की
खटर – पटर करती वो खिडकी
मेरे आँगन में जो खुलती
कपाट उसके दोनों आपस में मिलते –
कभी विलग हो जाते
जुदा हो एक दूजे से ऐसे दिखते
जैसे मुँह फेरा हो
अनवरत ही जारी रहती
यह प्रकिया मिलन और बिछोह की
आपस में मिल कर जुदा होना
कुछ कम न था
बिछोह से मिलन तक और मिलन से बिछोह तक
के बीच की वो गूंजित ध्वनि
जो तबले की थाप पर थरर-थरर का बोध कराती
ऐसी लगती जैसे नाचती कोई सुन्दरी
स्वर से स्वर मिलाती
आभास दिला रही जबरन
कोई हृदय के कपाट पर दस्तक दे
कहता हो कि अपने हृदलतल में
एक कोना मुझे भी दे दो
लेकिन यह स्वर मेरी निद्रा को भंग कर
“कल” जो बीत गया था और
“कल” जो आने वाला था
कुछ खट्टी मीठी यादों को तरोताजा कर
फिर से चल देता है
— डॉ मधु त्रिवेदी
अच्छी कविता !
अच्छी कविता !